देवांशु झा : मद्रासी ब्राह्मण और चौर्यकर्म
मैंने एक विवादास्पद विषय चुना है। मैं जानता हूं कि यहां जो लोग किसी पागल हवा के साथ बहते हुए चोर चोर चिल्लाने लगते हैं, वो आज मुझे ब्राह्मणवादी घोषित कर देंगे। मैं उसकी चिन्ता नहीं करता। इस मंच पर मेरी सामाजिक उपस्थिति में कुछ दबा छुपा नहीं है।
मैं लगभग पच्चीस वर्ष से मद्रासी ब्राह्मणों को निकट से देख रहा हूं। चौबीस वर्ष तो विवाह के हो चुके हैं।अधिकांश लोग जानते हैं कि मैंने तमिल ब्राह्मण परिवार में विवाह किया है। उस परिवार से जुड़ने के साथ-साथ मैंने दर्जनों मद्रासी ब्राह्मणों को निकट से देखा है। वे कुछ रिजिड( कई अर्थों में अच्छे और बुरे दोनों), परंपरागत, लकीर के फकीर, हिन्दू संस्कारों और कर्मकाण्डों के आग्रही, अनुशासित जन होते हैं। वे सामाजिक आम तौर पर नहीं होते। स्वार्थी भी हो सकते हैं। प्रांतीयता का विष भी उनमें हो सकता है (बहुतायत में होता है)। सिविक सेंस उनमें उत्तर के लोगों से बहुत अधिक होता है। वे सड़कों पर पीक थूकते, गाली गलौज करते हुए नहीं पाए जाते। और अंततः मैं यह कहना चाहता हूं कि एक मनुष्य के रूप में बहुत सिमटे हुए अथवा संकीर्ण होकर भी वे चोर या बेईमान नहीं होते। अपवाद स्वरूप हो सकते हैं। लेकिन एक अतिविशाल बहुमत चोर नहीं है।
मद्रासी ब्राह्मणों को मैंने काम के प्रति समर्पित और सत्यनिष्ठ, गंभीर देखा है। उन्हें अपने पारंपरिक पहनावे की कोई कुंठा नहीं। वे दिल्ली जैसे आधुनिक शहर में भी वेष्टि पहनकर बहुत सहजता से बाजार जाते हैं। पूजापाठ आदि में वैसा वैदिक मंत्रोच्चार तो संपूर्ण भारतवर्ष में और कहीं नहीं होता। उन्होंने हजारों वर्ष प्राचीन श्रुति को सुरक्षित रखा है। वे अत्यंत धार्मिक और ईश्वरीय सत्ता का सम्मान करने वाले मनुष्य होते हैं। मुझे कई बार उनके कूपमण्डूक होने पर क्रोध आता है। उनका कर्मकाण्डीय आग्रह भी मैं सहजता से स्वीकार नहीं पाता। किन्तु विधिवत पूजन आदि का सम्मान करता हूं। मैंने अपने जीवन में अब तक किसी मद्रासी ब्राह्मण को चोरी घूसखोरी करते हुए नहीं देखा है।
जब मैं राधाकृष्णन जैसे विद्वान पुरुष(तेलुगु) पर चोरी का आरोप लगते हुए देखता हूं तो मेरा मन कुछ विचलित हो जाता है। आज सुप्रसिद्ध संस्कृत-हिन्दी विद्वान श्री राधावल्लभ त्रिपाठी ने एक लंबे वीडियो में इस प्रवाद का खण्डन किया है। दुखद पहलू यह कि लोग राधाकृष्णन का तत्कालीन प्रत्युत्तर भी नहीं पढ़ना चाहते। थीसिस पढ़कर चोरी खोजना तो आकाशगंगा में अपनी पसंद का तारा खोजना सरीखा है उनके लिए!
मैं कुछ लोगों का ध्यान इस तथ्य की ओर खींचना चाहता हूं कि बंगाल जाकर पढ़ाई करने वाले डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को भी बहुत अपमान सहने पड़े थे। बंगाल में तब किसी परप्रांतीय मेधा को स्वीकार नहीं किया जाता था। अब भी वे बहुत बदले नहीं हैं। यह घेटोइज्म मद्रासियों में भी कूट-कूट कर भरा पड़ा है। लेकिन चोरी बेईमानी का आरोप मद्रासी ब्राह्मणों पर नहीं सधता। पुनः कहूंगा-अपवाद सभी जगहों पर पाए जाते हैं। वे अत्यंत रिजर्व, असामाजिक, तमिल संस्कृति से बाहर बहुत कम जानने वाले, स्वार्थी हो सकते हैं। किन्तु चोर बेईमान बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।