कमलकांत त्रिपाठी : वराहमिहिर को याद करते हुए

अस्मिता संस्कृत का शब्द है और संस्कृत में इसका एकमात्र अर्थ (अस्मि + तल् + टाप्‌) अहंकार है. अस्मितावाद का उभार और अस्मितावाद के वर्चस्व की स्वीकृति उपरोक्त प्रतिरूपों में से एक नहीं है? शाब्दिक अर्थ में तो अस्मिता मनुष्य की मनुष्य के रूप में भी नकारात्मक है। बाक़ी सब तो शुद्ध रूप से कृत्रिम और आनुषंगिक उपाधियां हैं। और मात्र जन्म के संयोग से प्राप्त जाति तो सर्वथा आनुषांगिक है।

“म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम्।
ऋषिवत्तेSपि पूज्यन्ते किं न पुनर्दैवविद् द्विजः।।“

Veerchhattisgarh

–वराहमिहिर (बृहत्संहिता, अध्याय-2, श्लोक-14)

[जिन म्लेच्छों (विदेशियों) और यवनों (यूनानियों) में यह (ज्योतिष) शास्त्र सम्यक्‌ रूप से प्रतिष्ठित है, वे भी ऋषि की तरह पूज्य हैं। तो ज्योतिष शास्त्र का ज्ञाता ब्राह्मण क्यों न हो? (भिन्न अर्थ भी संभव है)]*

{*यहाँ अस्मितावादी सोच की एक हल्की-सी छाया का आभास होता है जिसमें क्रिया-प्रतिक्रिया की शृंखला से देश के भावी इतिहास को विदीर्ण करने की संभावना संगर्भित थी।}

उदारता या कट्टरता पर किसी काल, किसी क्षेत्र, किसी जाति, किसी समुदाय का कॉपीराइट नहीं है। ये व्यक्ति-सापेक्ष हैं। ग्रहणशीलता (प्रतिभा थोड़ा भ्रामक शब्द है), निष्ठा और अध्यवसाय के संयोग से जो कुशलता प्राप्त होती है वह प्रकृत्या मनुष्य को उदार बनाती है। किसी की महिमा से आतंकित, उसकी सुनी-सुनाई, लिखी-लिखाई बातों को विवेक से समझे बिना, ज्यों की त्यों मान लेने से कट्टरता आती है। कट्टरता माने संकीर्णता, असहिष्णुता और झुंड-मानसिकता जो अनिवार्यत: अलगाववाद और हिंसक सोच, हिंसक भाषा और हिंसक कृत्य की ओर ले जाती है।

किसी भी डिसिप्लिन या कार्य-क्षेत्र का निष्ठावान और कुशल (दोनों का संयोग कम मिलता है) व्यक्ति जब उस डिसिप्लिन या कार्य-क्षेत्र के दूसरे कुशल व्यक्ति के संपर्क में आता है, उसके प्रति सहज ऊष्मा से भर उठता है, उस पर ‘लहालोट’ हो जाता है। तब वह कतई नहीं देखता (नहीं देख पाता) कि दूसरा उसके धर्म, उसके देश, उसकी जाति, उसके क्षेत्र का है या इनमें से किसी अर्थ में ‘ग़ैर’ है।

पता नहीं क्यों, मुझे लगता है कि ये जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद और संकीर्ण राष्ट्रवाद वगैरह (अगर राजनीतिक अजेंडा के तहत नहीं तो) अपने विषय या क्षेत्र में अकुशल लोगों के असुरक्षा-बोध और उसी की उत्पाद झुंड मानसिकता की देन हैं।

यह जो अस्मिताओं के उभार का होहल्ला सुनाई पड़ता है, उसमें अस्मिता के नाम पर अलगाव, विखंडन और नफ़रत तक का महिमामंडन निहित है। हो न हो, यह असुरक्षा-बोध से ग्रस्त औसत या उससे कम कुशलता वाले लोगों की झुंड बनाने की क़वायद हो, जिसमें वाक़ई कुशल लोगों की कुशलता के कुचले जाने या कम से कम दब जाने की पूरी आशंका है।

वराहमिहिर (बादल—अज्ञानांधकार–के लिए सूर्य) का काल-निर्धारण हुआ है—505-587 ई. [हमारे देश की प्राचीन विभूतियों की कृतियों के अध्ययन के साथ एक सामान्य समस्या जुड़ी है (दरअसल वह सकारण, सायास बनी एक परंपरा का प्रतिफल है) कि इतिहास के पाश्चात्य या आधुनिक बोध के अनुरूप उन सब का ‘काल-निर्धारण’ किया जाए। और समुचित साक्ष्य के अभाव में अनुमानाधारित होने से यह काल-निर्धारण अक्सर गिल्ली डंडे का खेल बन जाता है‌।]

वराहमिहिर उज्जैन के एक गणितज्ञ और अंतरिक्ष-वैज्ञानिक (खगोलशास्त्री / नक्षत्रशास्त्री) थे। उन्हें ज्योतिष-विद्या का भी शोधकर्ता और विद्वान माना जाता है। ज्योतिष माने? ज्योतिष शब्द ज्योतिस्‌ से बना है जिसका अर्थ है प्रकाश या दीप्ति तथा वे आकाशीय पिंड जो ज्योतिर्मय हैं। और ज्योतिष (ज्योतिस्‌ + अच्‌) माने ज्योतिर्मय आकाशीय पिंडों का विज्ञान। अंग्रेजी का ऐस्ट्रॉनमी।

वराहमिहिर का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है बृहत्संहिता। यह गणित, वास्तुकला (वास्तुशास्त्र नहीं, भवननिर्माण कला), नक्षत्र-गति, सूर्य और चंद्र-ग्रहण, काल-गणना, वायुमंडल और बादलों की निर्मिति, वृक्षायुर्वेद, वर्षा, कृषि, रत्न-शास्त्र, सुगंधित द्रव्य-शास्त्र, पर्यावरण-शास्त्र, जल-विज्ञान और भू-विज्ञान जैसे अनेक विषयों पर एक विश्वकोशीय रचना है। वराहमिहिर को यूनानी भाषा का भी ज्ञान था, उन्होंने यूनानियों (यवनों) की शास्त्र-निपुणता की मुक्त स्वर से प्रशंसा की है।

वराहमिहिर का एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है पंच-सिद्धांतिका जो गणित और अंतरिक्ष विज्ञान के पाँच सिद्धांतों—सूर्य सिद्धांत, रोमक सिद्धांत, पौलिस सिद्धांत, वसिष्ठ सिद्धांत और पैतमह सिद्धांत–का विवेचन है। इस कृति में इन सिद्धांतों पर प्राचीन भारत की अन्य कृतियों का भी संदर्भ मिलता है जो अब अनुपलब्ध हैं। यह ग्रंथ वेदांग ‘ज्योतिष’ (पूर्व अर्थ में) तथा हेलेनिक ज्योतिष (जिसमें यूनानी, मिस्री और रोमन तत्व विद्यमान हैं) का सार है।

वराहमिहिर की कृतियों में त्रिकोणमिति (Trigonometry) के महत्वपूर्ण सूत्र प्रतिपादित किए गए हैं। अपने पूर्ववर्ती आर्यभट्ट की तरह उन्हें पृथ्वी के गोल होने का ज्ञान था। वे संभवत: पहले वैज्ञानिक थे जिसने खोजा कि पृथ्वी में कोई शक्ति है जिससे वह चीज़ों को स्वयं से संसक्त रखती है, जिसे बाद में गुरुत्वाकर्षण का नाम दिया गया। उन्हें प्रकाशिकी का भी ज्ञान था; उन्होंने प्रतिपादित किया कि प्रकाश का परावर्तन (reflection) कणों के प्रति-प्रकीर्णन (back-scattering) से होता है। उन्होंने प्रकाश के अपवर्तन (refraction) की भी व्याख्या की जो एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर प्रकाश-किरणों की दिशा में परिवर्तन लाता है। उन्हें ज्ञान था कि जैसे द्रव पदार्थ सूक्ष्मरंध्र (porous) वस्तुओं से होकर निकल जाते हैं वैसे ही प्रकाश भी पदार्थों के अंत:आकाश (inner spaces) में प्रविष्ट होकर निकल जाता है‌।

वराहमिहिर को संस्कृत व्याकरण में दक्षता प्राप्त थी और छंदशास्त्र पर भी उनका अधिकार था। अन्य भारतीय गणितज्ञों की तरह उन्होंने भी गणित तथा अंतरिक्ष विज्ञान जैसे शुष्क विषयों को बहुत रोचक भाषा में छंदोबद्ध प्रस्तुत किया है।

आनुवंशिक विशेषज्ञता से अर्जित हस्तकला में दुनिया की सर्वोन्नत गुणवत्ता और तज्जनित निर्यात से स्पृहणीय समृद्धि प्राप्त करने की अपनी आनुषंगिक उपलब्धि का दौर बिता चुकने के बाद यह व्यवस्था समाज के विखंडन का बायस और उसके पैरों में बेड़ी बन चुकी थी। कैसी विडम्बना है कि वह विखंडन अभी तक जीवित है, बल्कि अपने नए-नए प्रतिरूपों में अधिक मायावी और अधिक विखंडनकारी बनकर सामने आ रहा है।

अस्मिता संस्कृत का शब्द है और संस्कृत में इसका एकमात्र अर्थ (अस्मि + तल् + टाप्‌) अहंकार है. अस्मितावाद का उभार और अस्मितावाद के वर्चस्व की स्वीकृति उपरोक्त प्रतिरूपों में से एक नहीं है? शाब्दिक अर्थ में तो अस्मिता मनुष्य की मनुष्य के रूप में भी नकारात्मक है। बाक़ी सब तो शुद्ध रूप से कृत्रिम और आनुषंगिक उपाधियां हैं। और मात्र जन्म के संयोग से प्राप्त जाति तो सर्वथा आनुषांगिक है।

 

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