पंकज झा : प्रोग्राम अरुणा ने इसलिए छोडा क्योंकि उन्हें उसमें…
आजकल अरुणा सोश्यल मीडिया पर छायी हुई हैं। आप सबने पढ़ा ही होगा कि किसी चैनल के पाक कला प्रतियोगिता में अंतिम दस में चयनित होने के बाद भी उन्होंने वह कार्यक्रम छोड़ दिया है। 25 लाख नगद मिलने वाली प्रतियोगिता थी वह। राष्ट्रीय चैनल का एक्सपोजर तो खैर था ही।

प्रोग्राम अरुणा ने इसलिए छोडा क्योंकि उन्हें उसमें अण्डा का एक व्यंजन बनाना पड़ता। जैन संस्कार में पली बढ़ी अरुणा से ऐसा करना संभव नहीं हुआ। यह होता है पारिवारिक संस्कार। ऐसी होती है निष्ठा।
ऐसे ही संस्कार की कहानी संयोगवश आज एक और पढ़ा QUORA पर। एक उच्च शिक्षित मुस्लिम अपनी दुविधा शेयर करते हुए वहां लिख रहा था कि चीन में उसके सामने बीफ, चिकेन आदि के ढेर सारे व्यंजन रखे हुए थे, लेकिन उसकी यह दुविधा यह थी कि पशु को हलाल तो किया गया नहीं होगा, तो कैसे वह खा पायेगा भला? अंततः बड़ी मुश्किल से वह मछली खा पाया किसी तरह।
मछली से हमारा अपना अनुभव भी स्मरण हो आया। हमारे यहां थोड़े भी ठीकठाक परिवार के पास एक तालाब अमूमन होता ही है। उसमें मछली पालने का काम होता है। मखाना भी उसी में उपजता है। तो एक ऐसा तालाब अभी भी अपने पास बचा हुआ है संयुक्त परिवार में। पारिवारिक बंटवारे के बाद उसमें से एक छोटा सा अंश उसमें अपना भी हो सकता है। अपन सबसे पहले यही सोच कर चिंतित होते रहते हैं कि मैं किसी तालाब का मालिकाना अधिकार कैसे ले सकता हूं भला, जिसमें मछली की खेती होती हो। इतनी सी सोच ही मुझे परेशान कर देती है। बहरहाल।
तीन ऐसे अलग-अलग प्रसंगों में ऊपर के दो मामले पारिवारिक संस्कार के हैं। एक विशुद्ध शाकाहारी समाज से संबंध रखने वाली लड़की इतना बड़ा अवसर छोड़ देती है क्योंकि इसे अपने संस्कार से उलट काम करना पड़ता।
एक तीसरा मेरा वाला मामला हालांकि पारिवारिक संस्कार से उलट है। यह केवल संवेदना पर आधारित है कि हमें अगर सभ्य कहाने की इच्छा हो, तो लाशों को नहीं खाना चाहिये, भले यह आपकी (कु)संस्कृति रही हो। है न?
क्या कहते हैं आप?
