कृष्णकांत पाठक IAS : मांसाहार..इतिहास की विडम्बना परक व्याख्या

आज किसी समाचार पत्र में खबर थी कि पश्चिम के देश धीरे-धीरे शाकाहार की ओर अग्रसर हो रहे हैं और उसमें भी निर्मल शाकाहारिता की ओर बढ़ रहे हैं, जबकि भारत में मांसाहार तेजी से बढ़ता जा रहा है।

विश्व के सर्वाधिक शाकाहारी देश में अब निर्मल शाकाहारिता का युग व्यतीत-सा हो चुका है। निर्मम मांसभक्षिता का युग निर्लज्ज होकर जयघोष कर रहा है। इस संबंध में नवजन के पास अपने तर्क हैं।
मांसाहार के समर्थन में बहुधा तीन ही तर्क दिए जाते हैं-
-नैसर्गिकता
-उपलब्धता
-गुणवत्ता

प्रथम तर्क को लेते हैं, जो मानता है कि जीवहिंसा प्रकृति में ही है, सो मानव मांसाहारी है। मानव देह की रूपरेखा में कैनाइन दंत ही बताते हैं कि वह मांसाहारी रहा है। ऐतिहासिक रूप से पश्चिमी जगत् में प्रस्तुत किया जाता रहा है कि मानव की प्रारंभिक अवस्था “हंटर-गैदरर” अर्थात् “आखेटक-आहारसंग्राहक” की रही है। इसमें एक गंभीर त्रुटि है। यह शब्दयुग्म ही प्रारंभिक स्तर पर अवैज्ञानिक है। मानव की प्रारंभिक अवस्था “हंटर” की नहीं, अपितु “गैदरर” की रही है। वह आहारसंग्राहक पहले था, आखेटक बाद में हुआ। मानव के पास ऐसे नख-शृंग-दंत नहीं थे कि वह सहज ही शिकारी हो जाता। ऐसे में उसे आहारसंग्राहक होना ही था और वह मुख्यतः शाकाहार ही हो सकता था। मांसाहार तो आखेटक व पशुचारक बनने के बाद की व्यवस्था है।

और आज का वीभत्स मांसाहार तो कुछ दशकों की देन है। जब तक ऐसी बड़ी पोल्ट्री नहीं होती, इतने चिकेन्स कहाँ से आ सकते थे। यह पोल्ट्री फार्मिंग ही है, जो सौ रुपए किलो कह कर दाल से भी कम भाव पर परिंदे की जान बेच सकती है। बहुत दिनों तक गाँव में सब लोग भेड़-बकरी पालते ही नहीं थे। सूअर तो कुछ अन्त्यज घोषित जन ही पालते थे। गोमांस तो अधिकांश के लिए वर्जित था। सब कुछ खा जाने वाली बर्बर चीनी बुभुक्षा में हाल तक गोमांस निषिद्ध था। उसे आधुनिक युग ने इतना मांसभक्षी बनाया, साम्यवादी विचारधारा ने इतना मांसभक्षी बनाया।

बहुत से जन कहते हैं, आदमी के कैनाइन दाँत बताते हैं कि वह मांसाहारी रहा है। एक पक्ष भर नहीं देखना चाहिए। यदि दाँत बताते हैं कि वह मांसाहारी रहा है, तो आँत बताती है कि वह शाकाहारी रहा है। फिर ये कैनाइन दाँत तो ऊँट में भी होते हैं, गोरिल्ला में होते हैं, हिप्पोपोटैमस में होते हैं, हिरनों की सैबरटूथ प्रजाति में होते हैं। ऐसे असंख्य हैं। कैनाइन दाँत सुरक्षा के लिए भी मिले थे, खास कर उन पशुओं को जो बहुत बलवान या गतिमान न थे और ठीक से नख-सींग से युक्त न हो सके थे। ये कैनाइन दाँत तभी बताते हैं कि जीव मांसाहारी रहा है, जब मुख इतना खुले कि वह आखेटक सा प्रयोग कर सके, यद्यपि यह भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हिप्पोपोटैमस प्रमाण है। परंतु मुख कम खुले, तब इतना तो सिद्ध हो ही जाता कि वह मूल रूप से मांसाहारी नहीं रहा है। कच्चे मांस को पचाना मानव के लिए सहज संभव भी नहीं था। आँत में इतने तीव्र अम्ल ही नहीं थे। यदि सब अनदेखा कर मानव को मांसाहारी मान ही लें, तब भी यह कहना तो कठिन ही है कि जो प्रवृत्ति या आवश्यकता नियेंडरथल या होमो इरेक्टस मानव प्रजाति की थी, वही प्रवृत्ति या आवश्यकता आज भी है। मानव शरीर विकसमान रहा है। कृषि व अनाज के उपयोग के बाद मानव शरीर इतना बदल चुका है कि वह गत के अनुकूल ही नहीं रहा। इसीलिए मानव का शुद्ध शाकाहारी बनना सरल है, केवल मांसाहारी बन रहना लगभग विरल है। मांसाहार की प्राकृतिकता का प्रतितर्क देती एक अंग्रेज विचारक हर्वे डॉयमंड की सशक्त उक्ति है-
जिस दिन किसी बच्चे को सेब और खरगोश दें
और वह खरगोश को खाता व सेब से खेलता मिले,
उस दिन मैं मानव को प्राकृतिक रूप से मांसाहारी मान लूँगा.

उपलब्धता के तर्क की ओर चलते हैं। जहां कृषि व वनस्पति संभव नहीं थी, वहां भोजन के लिए पर्याप्त शाकाहार उपलब्ध ही नहीं था। तो यह प्रकृति से अधिक जीवन की आवश्यकता थी। जगत् के अधिकांश भाग या उसकी जनसंख्या के लिए कभी जरूरी नहीं रहा। यह हिमाच्छादित, मरुस्थलीय, सागरतटीय भूभाग की किसी कालखंड की आवश्यकता रही हो सकती है। दुर्गम वनभाग या पर्वतीय स्थलों के लिए भी कुछ आवश्यक रही हो सकती है। लेकिन जिस युग में यह जीवन की आवश्यकता रही हो, उस समय भला वहां कितनी आबादी ही रही होगी। और अब तो अन्न या शाकाहारी भोजन की दुर्लभता का युग बीते भी युग हो चुका है।

गुणवत्ता के संबंध में पूर्व लेख में बहुत कुछ कहा जा चुका है। शाकाहार की असंख्य विविधता में वे सारे आवश्यक अमीनो एसिड्स, विटामिन्स व मिनरल्स मिल जाते हैं, जो भी मांस में उपलब्ध है।

नैसर्गिकता, उपलब्धता व गुणवत्ता के पार जाकर कुछ लोग सामाजिकता व धार्मिकता का तर्क ला सकते हैं।

सामाजिकता को लेते हैं। हम मान चुके हैं कि निर्मल शाकाहारिता का युग व्यतीत-सा हो चुका है। निर्मम मांसभक्षिता का युग निर्लज्ज होकर जयघोष कर रहा है। आधुनिक युग ने सब बदल दिया है। जो समुदाय व जन शाकाहारी थे, उनकी नयी पीढ़ी में अनेक या अधिकांश मांसाहारी हो चुके हैं। जो कभी-कभी मांसाहार करने वाले थे, वे अब निरंतर मांसाहारी बन गए हैं। उत्सव व समारोह दूषित हो गए हैं। घर व भोजनालय दूषित हो गए हैं। निरामिष जन के लिए यात्रा व समारोह इस संदर्भ में अधिक दुष्कर हो गये हैं। सड़क पर यात्री बढ़ गए हैं, परंतु “शुद्ध शाकाहारी भोजनालय” लिखे होटल या ढाबे घट गए हैं। वैष्णव भोजनालय होना पवित्रता का संदेश देता था। जब से पवित्रता को स्वच्छता का पर्याय भर मान लिया गया, वैष्णव जन अनादर्श हो गए, जो पीर पराई को अपनी मान लेते थे। भावहीन भोगी युग की मांसभक्षिता ने निर्मल शाकाहारिता को स्तरहीन सिद्ध कर दिया, यह पूरी विडंबना नहीं थी। पूरी विडंबना तो यह थी कि शाकाहार व मांसाहार को बस आहार का भेद मान कर सहज स्वीकार्य करा लिया गया। वह युग ही और था, जब इसके पात्र भी अशुद्ध मान लिए जाते थे।

किसी पार्टी में जाना हुआ। भीड़ में खड़े मित्र व मैत्रेयी ने अपने लिए स्टार्टर में से सामिष व्यंजन चुन लिया। मैं वहां से चला गया। वे कुछ देर बाद फिर मिले। पर्यावरण व मानवीय मुद्दों पर बातचीत करने लगे। अध्यात्म में भी पर्याप्त अधिकार से बोलते रहे। वहां स्टार्टर वाला कुछ शाकाहारी सामग्री लिए पहुंच गया। उन्होंने चलाकर कुछ प्रॉन जैसा माँगा। कुछ कहना चाहता था, इतने भावहीन व बर्बर हो ही गए, लेकिन इतने निर्लज्ज तो न बनो कि शाकाहारी के साथ खड़े होकर ही मांसाहारी व्यंजन की मांग करो, वह उसके लिए करुणाजनक है, जुगुप्साजनक है। वह उसके लिए भोजन व व्यंजन नहीं, रक्त व मांस है, शव व शोक है, प्राणहीन हुए जीव के प्रति करुणा है।

नहीं, यह आज की सामाजिकता सदा की सामाजिकता नहीं थी। हो भी, तो मानवीयता के बिना चल रही सामाजिकता त्याज्य है। जो सामिष या मदिराप्रेमी हमारे लिए मांस-मदिरा नहीं छोड़ सकते, उनके साथ होकर आप उनमें ढलने लगें, यह आपकी नैतिक दुर्बलता है।

आज किसी प्रशासनिक प्रशिक्षण के कार्यक्रम में नैतिकता पर उद्बोधन था। एक जन ने कहा कि नैतिकता बहुत व्यक्तिनिष्ठ होती है। उन्होंने दृष्टांतरूप में कहा कि मांसाहार किसी के लिए नैतिक हो सकता है, तो किसी के लिए अनैतिक। नहीं! मांसाहार अधिकांशतः व लगभग पूर्णतः अनैतिक है। व्यर्थ के कुतर्क और अपने स्वाद के लिए प्रपंच से जघन्य हत्या को सुसंगत ठहराना और भी अनैतिकता है।
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पुनश्च!

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