स्वामी सूर्यदेव : मंत्र–ध्वनि विज्ञान का चर्मोत्कर्ष..
हमारे यशस्वी पुरखों ने, वेदवेत्ता ऋषियों ने जिन ऊंचाइयों को छुआ अभी हमारे या पश्चिम के बस की बात नहीं कि छुना तो दूर हम उस तरफ सोच भी सकें।
चलो उदाहरण से समझाता हूँ भाई,, नीचे किसी गढ़ में किसी पोखर में या आपके घर में किसी बर्तन में पानी पड़ा है,, उसे ऊपर उठाना है,, उसके लिए कितने तरीके हो सकते हैं? सामान्य बुद्धि का व्यक्ति बाल्टी या मटका या कैन भरकर उठा लेगा, थोड़ा उससे ऊपर वाला मशीन,मोटर या पम्प आदि से उठा लेगाऔर छत पर टँकी में पहुंचा देगा,मुँह में पानी भरकर भी फेंक सकते हैं ऊपर को,
लेकिन अगर जलों को आकाश में उठाना है?तब क्या करोगे?
विशिष्ट बुद्धि का व्यक्ति बर्तन में पानी डालेगा नीचे चूल्हे में लकड़ी और भांप बनाकर उड़ा देगा,क्या इसके अलावा कोई चारा है? हो सकता है हो लेकिन दिखता तो नहीं।
एक अन्य रास्ता है, सूर्य ही इतना तपने लगे कि नीचे का पानी भांप बनकर उड़ जाए, समुद्र सूखने लगें,, तालाबों बावड़ियों की तो बात ही क्या..
हठयोग है नीचे से, जहां हमारी ऊर्जा है मूलाधार चक्र पर, काम केंद्र पर, वहां से ऊर्जा को ऊपर उठाना, नीचे से योगाग्नि इतनी तीव्र कर देना की काम ऊर्जा ऊपर के चक्रों में उठने लगे, लेकिन यह कोई लाखों में बल्कि करोड़ो में कोई एक कर पाता है, मेहनत भी ज्यादा है, तालाब को कबतक बर्तनों में डालकर पानी को उड़ाओगे,
फिर दूसरा तरीका है राजयोग या कहें मंत्रयोग। इसमें आप नीचे मूलाधार से ऊपर सहस्त्रार चक्र तक ऊर्जा नहीं उठाते बल्कि सहस्त्रार चक्र को ही इतना तपा देते हैं, इतना जागृत कर देते हैं कि नीचे पड़ी ऊर्जा उसकी तरफ उठने लगती है। यह ऐसे हुआ जैसे सूर्य नीचे से जलों को वाष्पीभूत करता है।
इसके लिए उन ब्रह्मवेत्ता ऋषियों ने ध्यानमंदिरों का निर्माण किया। ध्यान रहे उपासना स्थल नहीं। ध्यान स्थल। उनके निर्माण में यह ध्यान रक्खा गया कि बिल्डिंग का ऊपरी हिस्सा गुम्बद जैसा हो और आवाज गूंजती हो। आपने ऐसे अनेक मंदिर देखे होंगे जिनमें आवाज कई गुणा होकर गूंजती है। साधकों की संख्या भी कम से कम 9 रक्खी गई। अगर मंदिर में ध्यान करना है तो फिर परिपक्व होने के बाद अकेले में कहीं भी कर सकते हैं कोई बाधा नहीं।
आठ साधक चारों तरफ बैठेंगे और नोवां ठीक बीच में जहां गुम्बद का सेंटर है। जब सब एक स्वर में मंत्रपाठ करेंगे और चूंकि आवाज गूंजेगी ही जो दीवारों से लगकर ऊपर सेंट्रलाइज होगी और सीधी नीचे उस बीच वाले नवें साधक के सहस्त्रार चक्र पर आकर टकराएगी। एक घण्टे का मंत्रपाठ एक महीने जितना शीघ्र फल देने वाला होगा क्योंकि यही ध्वनि विज्ञान है,यही शब्द ब्रह्म है। यही वो कुंजी है जो आज्ञाचक्र को इतना जागृत कर देगी की नीचे की ऊर्जा को वह जबर्दस्ती ऊपर उठा लेगा।
फिर नीच,, बर्बर विधर्मियों के टोले आते गए,, उन्होंने उपासना स्थलों को तोड़ा, देव विग्रह ध्वस्त किए,,लेकिन एक बात से वे चोंके,, उन्होंने देखा कि कुछ ऐसे ढांचे भी हैं जिनके गुम्बद गोल हैं और अंदर देवता की प्रतिमा भी नहीं। उन्होंने देखा कि इनके अंदर से जाप करके निकलने वाले अतुलनीय तेजपुंज हैं, उनके चेहरे की शांति ईश्वरीय है और प्रज्ञा ऐसी जो न देखी न सुनी।
बाद में विधर्मियों ने भी इसी थीम पर चलना शुरू किया और उनमें अपनी बोली में चिल्लाना शुरू किया ताकि वे भी ऐसे दिव्य हो सकें ऐसे प्रज्ञापुरुष हो सकें।
लेकिन उनके ये थोड़े ही पता था कि यह स्वर विज्ञान है,, यह पूर्ण विकसित ध्वनि विज्ञान है,, यह मंत्रयोग है,, यह राजयोग का महत्वपूर्ण अंग है,,
इसका एक हिस्सा फिर कभी लिखूंगा,, फिलहाल इतना लिखना है कि प्राचीन सारे पूजा स्थल आपके तत्ववेत्ता पूर्वजों की खोज है।सनातन संस्कृति का जितना यशोगान करें कम है। जिव्हा का इतना सामर्थ्य कहाँ जो सनातन धर्म को पूरा व्यक्त कर सके।
ॐ श्री परमात्मने नमः। *सूर्यदेव*