योगी अनुराग : कौन दिसा में ले के…

‘योगी अनुराग’

इस गीत पर कहने को अनंत है, भावनाओं का सागर है किंतु वो खारी स्याही उतारी न जा सकेगी। जो हो सकता है, वो बस इतना है कि इस गीत को सुनते हुए झिंझोटी के झींगुरों को देह पर महसूसना और गावती की लचक पर मन-मंदिर की घंटियाँ बजाना।

मोटा-मोटी देखा जाए तो अब तक क़रीब पाँच हज़ार सात सौ हिंदी फ़िल्में बन चुकी हैं, जिनमें कि तक़रीबन सत्रह हज़ार गीत भी हैं। इन सत्रह हज़ार गीतों में हज़ार डेढ़ हज़ार गीत ऐसे हैं जो “क” वर्ण से आरम्भ होते हैं। सटीक गणना की जाए तो ऐसे एक हज़ार तीन सौ बारह गीत हैं।

हिन्दी फ़िल्म संगीत के इस ज्ञात इतिहास में कुल सैंतीस गीत ऐसे हैं, जो “कौन” शब्द से आरंभ हुए! ये एक “कौन” रेखा है, जिसका केंद्र “नदिया के पार” फ़िल्म का “कौन दिशा में ले के” गीत है। ये इस शब्द-रेखा का छब्बीसवाँ गीत है, मगर सर्वाधिक प्रसिद्ध। मानो इस शब्द-रेखा का केंद्र हो जैसे!

यों भी, छब्बीसवीं चीज़ों को केंद्र हो जाने का यश प्राप्त है। अंक छब्बीस, पूरे गणित का एकमात्र अंक है जो एक स्क्वेर व एक क्यूब का केंद्रस्थ होता है, पच्चीस और सत्ताईस का। जैसे कि “यहोबा” की छब्बीसवीं पीढ़ी में जन्मे “जीजज”, ईसाईयत का केंद्र बन गए।

मज़े की बात ये है कि कुल सैंतीस गीतों को अभिहित करने वाली इस शब्द-रेखा का पहला गीत सन् उन्नीस सौ सैंतीस में ही आया था। बोल थे, “कौन देश है जाना बाबू”। और आख़री गीत सन् दो हज़ार सोलह में आया है। बोल हैं, “कौन तुझे यूँ प्यार करेगा”।

ग़ौर किया जाए तो इस “कौन” रेखा के पहले और आख़री बिंदु के बीच बड़ा रोचक संजोग है। गीतकार- संगीतकार- गायक, दोनों गीतों के सभी छः नाम “म” से आरम्भ होते हैं। पहले गीत में मुंशी- मल्लिक- मल्लिक हैं। आख़री में मनोज- मलिक- मुच्छल हैं।

बहरहाल, बहरकैफ़।

गीत “कौन दिसा में ले के” का संयोजन मंडल हेमलता/जसपाल- रवींद्र जैन- रवींद्र जैन हैं!

कई बार यार लोगों के बीच चर्चा उठ जाती है कि क्या होता जो “कौन दिसा में ले के” गीत को लता दीदी गातीं?

हम्म! आइडिया बुरा नहीं, लता दीदी ने जैन-टीम के लिए गाया भी है। रवींद्र और लता दीदी के तमाम विवादों से इतर एक सत्य ये भी है कि उन्हें मिले तीन फ़िल्मफ़ेयर में से आख़िरी वाला लता दीदी के गीत “सुन साहिबा सुन” को मिला था। भले ही लता दीदी ने फ़िल्मफ़ेयर की मंच से ही उस धुन का श्रेय राजकपूर को देकर जैन कैम्प की सेलिब्रेशन नाइट को काली कर दिया हो।

किंतु फिर भी, गीत “कौन दिसा में ले के” तो इस पूरे विवाद से तीन बरस पहले का है। तब फिर जैन साहब ने लता दीदी को क्यों नहीं चुना? इसके पीछे उनकी एक आदत थी, उसे बुरी कहें या भली, वे हर अंतरे को दो भिन्न तरीक़ों से गवाते थे।

“सौदागर” की रिकॉर्डिंग के समय लता दीदी ने रवींद्र जैन को इस आदत की तुष्टिकरण हेतु पर्याप्त समय नहीं दिया। और इस तरह स्वाभिमानी रवींद्र जैन के लिए हेमलता ही लता का पर्याय बन गईं!

हेमलता का गाया, राग भीमपलासी- राग मध्यपाद सारंग- राग काफ़ी की कुंडलियों में बुना गया गीत “अँखियों के झरोखों से, तुझे देखा जो साँवरे” रवींद्र जैन का सबसे बड़ा हिट साबित हुआ। इस गीत के बारे में कहा जाता है कि इसे लता दीदी भी हेमलता से बेहतर नहीं गा सकती थीं।

मेरा लगभग ऐसा ही कुछ परसेप्शन गीत “कौन दिसा में ले के” के बारे में है। ये गीत हेमलता ने इसके बेहतरीन स्तर पर जाकर गाया है। सो, हेमलता- जसपाल- जैन, ये तीनों जैन कैम्प का पर्याय हो गए थे।

हेमलता, जसपाल और रवींद्र जैन — महज़ संख्या बतौर ये नाम तीन होते हैं, किंतु इन्हें एकाकार करते हुए “टीम-जैन” कह दिया जाए, तो भी, सिनेमाई इतिहास को कोई आपत्ति न होगी। इस टीम में दो तीन नाम और हुआ करते थे- आरती मुखर्जी, सुरेश वाडेकर और येसुदास।

और इसी टीम के बल पर रवींद्र जैन ने हिट और सुपरहिट के बीच का दायरा बहुत कम समय में तय कर लिया था, जोकि पढ़ने सुनने में बहुत छोटा प्रतीत होता है, वस्तुत: इसी दायरे में पूरे सिनेमा की प्रतिस्पर्धा समाहित है।

हालाँकि, इस बहुत बड़े दायरे को बहुत छोटे समय में तय करने में रवींद्र जैन की लाक्षणिक शैलीगत विशेषताओं का योगदान था। जैसे कि उनके अधिकतर गीत, चाहे जो उठा लीजिए, ग्राम्य-पुकारों की एक सतत् पंक्ति नज़र आते हैं।

जैन के नायक-नायिका फुसफुसाहट वाला प्रेम नहीं करते, बल्कि वे तो अपनी पुकारों को पूरी दुनिया को सुनाते हैं। इस गूँजती शैली की उन्मत्त-पुकारों को बुनती मत्त-शब्दावली ने उनके गीतों को जनमानस के भीतर तक उड़ेल कर हर दिल में छिपी भावनाओं को शब्द दे डाले थे।

ये तो थी उनकी गीतकारी। और अब यदि उनकी संगीतकार वाली शैलीगत विशेषता की बात की जाए तो कहना होगा कि जैन साहब ने सिनेमा पर लगातार पड़ रहे भरपूर पाश्चात्य प्रभाव के बीच भी, भारतीय संगीत को जीवित रक्खा।

बीट्स और वाद्य संयोजन के ख़िलाफ़ उतने ही थे, जितने कि बाँसुरी, सितार, तबला, संतूर और वॉयलिन के समर्थक थे। उनके प्रिय राग खमाज श्रेणी के थे, किंतु फिर भी, वे शास्त्रीय दुरूहता से बचते-बचाते हुए अपने कंपोज़िशन में लोकसंगीत का पुट ले ही आते थे।

वे स्वयं मानते थे कि संगीतमय पुकार-भरी शैली और कोमल स्वरों के प्रति उनका अनुराग कुछ ज़्यादा ही रहा है। फिर चाहे वो राग भूपाली, माड़वा और पूरबी की छाया लेना हो या फिर गीतों के इंटरल्यूड में राग यमन में बज रहे सितार को डालना हो। ऑल इन ऑल, वे इन सब कामों में मास्टर थे।

ठीक यही मास्टरी गीत “कौन दिसा में ले के” में दिखाई देती है!

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गीत राग झिंझोटी की पुकारों में आरंभ होता है, और पार्श्व में कहरवा ताला तबला बज रहा है!

“ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ” जैसी मन-मन में बसी बंदिश के राग व सुरों की सड़क को उकेरता हुआ ये गीत, जब शुरू होता है तो प्रतीत होता है कि राग झिंझोटी बज नहीं रहा, बल्कि सैकड़ों झींगुर देह पर रेंग रहे हैं।

और इसके मुखड़े? इसके मुखड़े राग गावती में निबद्ध किए गए हैं। हर एक के अंतरमन को गाने पर बाध्य कर देने वाला राग, गावती राग, बहुत-सी वंदना भरी बंदिशों को स्वर देने वाला राग, यहाँ गुंजा और चंदन के प्रेम की वंदना कर रहा है।

इस गीत पर कहने को अनंत है, भावनाओं का सागर है किंतु वो खारी स्याही उतारी न जा सकेगी। जो हो सकता है, वो बस इतना है कि इस गीत को सुनते हुए झिंझोटी के झींगुरों को देह पर महसूसना और गावती की लचक पर मन-मंदिर की घंटियाँ बजाना।

गुंजा और चंदन के प्रेम में, इससे अधिक कुछ भी ऐसा नहीं जो शब्दों से कहा जा सके!

 

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