योगेश्वर श्रीकृष्ण : विराट भारतीय संस्कृति, जीवन दर्शन के अतुलनीय महानायक

सुदृढ़ राष्ट्र स्थापना..लगभग 70 वर्ष की उम्र में महाभारत युद्ध के दौरान श्री कृष्ण के विचार थे कि धर्म स्थापना के मार्ग में जो भी बाधक हो उसे नष्ट कर देना चाहिए, धर्म स्थापना से उनका आशय सुदृढ़ राष्ट्र स्थापना को लेकर था और लगभग यही विचार आचार्य चाणक्य के थे..कम ही लोग जानते है कि सिकंदर की मृत्यु चाणक्य के कारण हुई।


डॉ. राधाकृष्णन पूर्व राष्ट्रपति द्वारा लिखी लगभग 400 पन्नें की पुस्तक में श्री कृष्ण और चाणक्य को हिंदुस्तान की कूट राजनीति का महानायक बताते हुए दोनों में कई अदभुत समानताये बताई गई है..मसलन दोनों साधारण परिवार से थे..एक ग्वाला तो दूसरा शिक्षक और दोनों ने ही कभी खुद राजा बनने का प्रयास नहीं किया..दोनों ही kingmaker थे।

कृष्ण बड़े ही रहस्यमय प्रवृति वाले थे.वे सब-कुछ जानते हुए भी समय के पहिये के साथ चलते थे।

धर्म की स्थापना के लिए महाभारत का युद्ध हुआ ऐसा मानना है पर मेरे विचार से सत्य की रक्षा करना व पंच तत्त्व की ज्ञान इन्द्रियों को बोध करना था।

कृष्ण की गोपियो को लेकर भ्रांतिया है। वस्तुतः अपने जीवनकाल में कृष्ण ने कई युद्ध किये। अत्याचारी राजाओ,सामंतो के कैद की गई बहू-बेटियो को उन्होंने मुक्त कराया लेकिन उनके परिजन-समाज उनको अपनाने के लिए तैयार न हुए,तब उन्होंने पत्नी का दर्जा देकर सम्मान दिया।

श्री कृष्ण का विराट व्यक्तित्व दूध-दही के पीछे माखनचोर के रूप में छिप गया है.इस पर रामकुमार भ्रमर का 5 भागो में लिखा गया विश्लेषण पठनीय है।

Pr@kash sahu.

 

कुरुक्षेत्र में दो सेनाओं के बीच खड़े होकर भारी तनाव के समय कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया, वो दुनिया का श्रेष्ठतम ज्ञान है।

गीता का जन्म युद्ध के मैदान में दो सेनाओं के बीच हुआ। 

जीवन की श्रेष्ठतम बातें भारी तनाव और दबाव में ही होती हैं। अगर आप दिमाग को शांत और मन को स्थिर रखने की कोशिश करें तो सबसे बुरी परिस्थितियों में भी आप अपने लिए कुछ बहुत बेहतरीन निकाल पाएंगे। ये श्रीकृष्ण सिखाते हैं।

महाभारत युद्ध में प्रतिक्षण शस्त्र धारण किया था..?

कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण ने शस्त्र धारण नही किया ऐसा कहा जाता है लेकिन मेरा विचार है कि युद्धभूमि में शुरू से अंत तक अस्त्र-शस्त्र से लैस सम्पूर्ण युद्ध का संचालन स्वयं श्री कृष्ण ने अकेले ही किया।

इस बात का प्रमाण युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में हुई आपसी बहस से सिद्ध होता है कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का कटा शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है?

सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के कटे शीश ने उत्तर दिया कि श्रीकृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली, दुर्गा श्रीकृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

इस बात से सिद्ध होता है कि समस्त अस्त्र-शस्त्र से लैस अर्जुन को ही उन्होंने धारणकर लिया था और जिधर उनकी उंगली उठ जाती-जिधर रथ का पहिया घूम जाता उस ओर शत्रुसेना में हाहाकार मच जाता था,संपूर्ण युद्ध की व्यूहरचना उन्होंने की।

वेद-शास्त्र और वर्तमान कानून भी तो कहता है कि किसी को उकसाने वाला भी बराबर का भागीदार होता है।

भारतीय पुराणों में कृष्ण एक विलक्षण और अद्वितीय व्यक्तित्व वाले पुरुष हैं। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी तुलना न किसी अवतार से की जा सकती है और न संसार के किसी महापुरुष से।

श्री कृष्ण के जीवन की प्रत्येक लीला में , प्रत्येक घटना में एक ऐसा विरोधाभास दीखता है जो साधारणत: समझ में नहीं आता है और यही विलक्षणता है उनके जीवन चरित की या संभवत: जीवन दर्शन की भी।

ज्ञानी-ध्यानी जिन्हें खोजते हुए हार जाते हैं , जो न ब्रह्म में मिलते हैं , न पुराणों में और न वेद की ऋचाओं में। विश्व इतिहास में श्रीकृष्ण जैसा कर्म-योद्धा ढूढऩे से भी नहीं मिलता है।  उनका एक भी ऐसा कर्म नहीं था जिससे किसी एक का भी अहित हुआ हो।अपने कर्मों के द्वारा उन्होंने विश्व चेतना को आन्दोलित ही नहीं किया, बल्कि इतिहास की धारा को ही नया मोड़ दिया।

कर्म करने में इनसान पूरी तरह स्वतंत्र होता है लेकिन यदि इसका ठीक से उपयोग न करे तो उसे ऋणात्मक परिणाम भी भोगने पड़ सकते हैं।कृष्ण ने यह बात महाभारत में कई स्थलों पर बताई है।

अर्जुन को उपदेश करते हुए उन्होंने विश्व समाज के सामने पहली बार कर्मों के रहस्यों को गीता के जरिए गहराई से समझाया कि बिना कर्म किए एक पल भी रहा नहीं जा सकता है और हमें कर्म करने में अधिकार है, फल की चिन्ता क्यों? जिस चीज पर अपना वश नहीं है, उस पर किसी तरह की चिन्तन या चिन्ता की क्या आवश्यकता है!!

गीता और महाभारत में उन्होंने जो कुछ भी कहा है, वह सब उनके पवित्र जीवन का पवित्र हिस्सा था।

अपनी नीतिगत बातों से उद्देलित करते थे, उकसा देते थे

कृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्म के इस नए रूप को सशक्त स्वर महाकवि दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ में कर्ण-वध के अवसर पर दिया है। भूमि में धँसे रथ के पहिए को निकालने में जुटे निःशस्त्र कर्ण पर तीर चलाने का श्रीकृष्ण से निर्देश पाकर अर्जुन हिचक जाते हैं और कृष्ण से पूछते हैं..
‘‘नरोचित किन्तु क्या यह कर्म होगा ?
नहीं इससे मलिन क्या धर्म होगा ?’’
अर्जुन की उत्कंठा पर कृष्ण का उत्तर विस्मयकारी अद्भुत जवाब देते हुए कहते हैं..
‘‘हँसे केशव, वृथा हठ ठानता है,
अभी तू धर्म को क्या जानता है?
कहूँ जो पाल उसको धर्म है यह।
हनन कर शत्रु का सदधर्म है यह।।
क्रिया को छोड़, चिंतन में फँसेगा,
उलटकर काल तुझको ही ग्रसेगा।।’’

दुर्योधन को भी उन्होंने उकसा दिया कि मां के सामने बिना कपड़ों के जाओगे, कुछ तो ढंक लो। यही दुर्योधन की मृत्यु का कारण भी बना।

श्रीकृष्ण बेहद चतुर थे,बर्बरीक को भी उन्होंने उकसा दिया कि युद्धभूमि का सबसे बड़ा वीर योद्धा वही है और युद्धभूमि की पूजा के लिए वीर योद्धा के शीशदान की जरूरत होती है सो वो अपना शीशदान करें।

श्रीकृष्ण को मालूम था कि ये युद्ध मे शामिल हुआ तो पांडवों की नीतिगत हार तय है।पश्चात में ब्राम्हण वेशधारी श्री कृष्ण ने अपना असली विराट रूप बर्बरीक को अनुरोध करने पर दिखाया।

खाटू श्याम के नाम से राजस्थान में इनकी पूजा की जाती है।

” कृष्ण कहते है स्त्रियों में मैं “कीर्ति” हूँ “

अगर स्त्री में भी परमात्मा की झलक पानी हो तो वो कहाँ पायी जा सकेगी , “कीर्ति” में , और “कीर्ति “का स्त्री से क्या सम्बन्ध है और “कीर्ति” क्या है?

स्त्री भीड़ में निकलती है तब उस का दृष्टिकोण स्वयं को कामवासना का विषय मानकर चलने का होता है और दुसरे पुरुष भी उसको यही मानकर चलते है।

“कीर्ति” का अर्थ है जिस स्त्री में ऐसी दृष्टि न हो, जिसको अंग्रेजी में कहते है “ऑनर”, जिसे उर्दू में कहते है “इज्जत”…

“कीर्ति” का अर्थ है ऐसी स्त्री जो अपने को वासना का विषय मानकर नहीं जीती, जिसके व्यक्तित्व से वासना की झंकार नहीं निकलती तब स्त्री को एक अनूठा सौन्दर्य उपलब्ध होता है, वह सौंदर्य उसकी “कीर्ति ” है।

मार्शल आर्ट के जन्मदाता थे श्रीकृष्ण

भारतीय परंपरा और जनश्रुति अनुसार भगवान श्रीकृष्‍ण ने ही मार्शल आर्ट का अविष्कार किया था। दरअसल पहले इसे कालारिपयट्टू कहा जाता था। इस विद्या के माध्यम से ही उन्होंने चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था तब उनकी उम्र 16 वर्ष की थी। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था।

भगवान श्रीकृष्ण की कोमल  काया युद्धकाल में देह विस्तृत और सख्त हो जाती थी। वे योग और कलारिपट्टू विद्या में पारंगत होने के कारण वे ऐसा कर लेते  थे।

भगवान श्रीकृष्ण के लगभग 119वर्ष की आयु में देहत्याग के समय न तो उनकी देह के केश श्वेत थे तथा शरीर पर किसी प्रकार कही झुर्रियां पड़ी थी।

 

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