वेदों में अग्नि.. सिगरेट पीने वालों…

अग्नि की प्रार्थना उपासना से यजमान धन, धान्य, पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है। उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि होती है। अग्निदेव का बीजमन्त्र रं तथा मुख्य मन्त्र रं वह्निचैतन्याय नम: है।

 

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कल्याण के निमित्त वेदों में अग्निदेव से प्रार्थना के सूक्त

 

विश्व के प्रथम ग्रंथ वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है। अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है।

आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं।अग्नि हिंदू परंपराओं का एक अभिन्न अंग बना है।

प्राचीन हिंदू ग्रंथों में तीन स्तरों पर, पृथ्वी पर आग के रूप में, वायुमंडल में बिजली के रूप में, और आकाश में सूर्य के रूप में अस्तित्व के लिए माना जाता है। यह ट्रिपल उपस्थिति उन्हें वैदिक विचार में देवताओं और मनुष्यों के बीच दूत के रूप में जोड़ती है।

 

अग्नि (पाली: अग्गी ) एक ऐसा शब्द है जो बौद्ध ग्रंथों  और बौद्ध परंपराओं के भीतर सेनिका विधर्म संबंधी बहस से संबंधित साहित्य में व्यापक रूप से प्रकट होता है। इन ग्रंथों में समान शब्द तेजस के साथ चर्चा की गई है ।

अश्वत्थ (सूर्य का एक नाम) अग्नि रूप है।

ऋग्वेद का प्रथम सूक्त प्रथम मन्त्र : —

नवर्चस्यास्य सूक्तस्य वैश्वामित्रो मधुच्छन्दा ऋषिः | अग्निर्देवता | गायत्री छन्दः |

||ओ३म्||

अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म् | होता॑रं रत्न॒धात॑मम् | १

भावार्थः :- हम उस अग्निकी स्तुति करते हैं जो यज्ञका देव , सृष्टि उत्पत्तिका मूलधार , नित्य उपास्य , सब रत्नोंका दाता और धाता है।

अग्नि बहुत प्रकार की होती है,उनमें “इला” भी एक है, जिसका ज़िक्र यहाँ हुआ है।

स्तुति करनेके अर्थमें ईळे यहाँ क्रिया है , अग्नि बहुत प्रकारकी होती है, यथा जठराग्नि,चिदाग्नि,भौतिक अग्नि …

अग्नि जल सहित समस्त पदार्थों-अपदार्थों में सर्वत्र है।

इस मन्त्र में अग्नि परमात्मा को कहा गया है?

मांस कुकर के भीषण ताप में भी नही गलता लेकिन पेट की जठराग्नि में गल जाता है।

वेदों में अग्नि के सूक्त सर्वाधिक हैं।

सिगरेट पीने वालों को सिगरेट पीकर जलती अग्नि के बचे टुकड़े को पैरों तले मसलने वालो का नुकसान ही होता है,सो अग्नि पर कभी पग न रखें और नहीं जलते हुए टुकड़े को नाली में डाले। शास्त्रों में अग्नि को लांघना भी वर्जित किया गया है।

ताँ उ॑श॒तो वि बो॑धय॒ यद॑ग्ने॒ यासि॑ दू॒त्य॑म्। दे॒वैरास॑त्सि ब॒र्हिषि॑॥ – ऋग्वेद (1.12.4)

पदार्थ –

यह (अग्ने) अग्नि (यत्) जिस कारण (बर्हिषि) अन्तरिक्ष में (देवैः) दिव्य पदार्थों के संयोग से (दूत्यम्) दूत भाव को (आयासि) सब प्रकार से प्राप्त होता है, (तान्) उन दिव्य गुणों को (विबोधय) विदित करानेवाला होता और उन पदार्थों के (सत्सि) दोषों का विनाश करता है, इससे सब मनुष्यों को विद्यासिद्धि के लिये इस अग्नि की ठीक-ठीक परीक्षा करके प्रयोग करना चाहिये॥

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घृता॑हवन दीदिवः॒ प्रति॑ ष्म॒ रिष॑तो दह। अग्ने॒ त्वं र॑क्ष॒स्विनः॑॥ – ऋग्वेद (1.12.5)

पदार्थ – (घृताहवन) जिसमें घी तथा जल क्रियासिद्ध होने के लिये छोड़ा जाता और जो अपने (दीदिवः) शुभ गुणों से पदार्थों को प्रकाश करनेवाला है, (त्वम्) वह (अग्ने) अग्नि (रक्षस्विनः) जिन समूहों में राक्षस अर्थात् दुष्टस्वभाववाले और निन्दा के भरे हुए मनुष्य विद्यमान हैं, तथा जो कि (रिषतः) हिंसा के हेतु दोष और शत्रु हैं, उनका (प्रति दह स्म) अनेक प्रकार से विनाश करता है, हम लोगों को चाहिये कि उस अग्नि को कार्यों में नित्य संयुक्त करें॥

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अ॒ग्निना॒ग्निः समि॑ध्यते क॒विर्गृ॒हप॑ति॒र्युवा॑। ह॒व्य॒वाड् जु॒ह्वा॑स्यः॥ – ऋग्वेद (1.12.6)

पदार्थ – मनुष्यों को उचित है कि जो (जुह्वास्यः) जिसका मुख तेज ज्वाला और (कविः) क्रान्तदर्शन अर्थात् जिसमें स्थिरता के साथ दृष्टि नहीं पड़ती, तथा जो (युवा) पदार्थों के साथ मिलने और उनको पृथक्-पृथक् करने (हव्यवाट्) होम किये हुए पदार्थों को देशान्तरों में पहुँचाने और (गृहपतिः) स्थान तथा उनमें रहनेवालों का पालन करनेवाला है, उस से (अग्निः) यह प्रत्यक्ष रूपवान् पदार्थों को जलाने, पृथिवी और सूर्य्यलोक में ठहरनेवाला अग्नि (अग्निना) बिजुली से (समिध्यते) अच्छी प्रकार प्रकाशित होता है, वह बहुत कामों को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त करना चाहिये॥

 

सुस॑मिद्धो न॒ आव॑ह दे॒वाँ अ॑ग्ने ह॒विष्म॑ते। होतः॑ पावक॒ यक्षि॑ च॥ – ऋग्वेद (1.13.1)

पदार्थ – हे (होतः) पदार्थों को देने और (पावक) शुद्ध करनेवाले (अग्ने) विश्व के ईश्वर ! जिस हेतु से (सुसमिद्धः) अच्छी प्रकार प्रकाशवान् आप कृपा करके (नः) हमारे (च) तथा (हविष्मते) जिसके बहुत हवि अर्थात् पदार्थ विद्यमान हैं, उस विद्वान् के लिये (देवान्) दिव्यपदार्थों को (आवह) अच्छी प्रकार प्राप्त कराते हैं, इससे मैं आपका निरन्तर (यक्षि) सत्कार करता हूँ॥१॥१॥जिससे यह (पावक) पवित्रता का हेतु (होतः) पदार्थों का ग्रहण करने तथा (सुसमिद्धः) अच्छी प्रकार प्रकाशवाला (अग्ने) भौतिक अग्नि (नः) हमारे (च) तथा (हविष्मते) उक्त पदार्थवाले विद्वान् के लिये (देवान्) दिव्यपदार्थों को (आवह) अच्छी प्रकार प्राप्त कराता है, इससे मैं उक्त अग्नि को (यक्षि) कार्य्यसिद्धि के लिये अपने समीपवर्त्ती करता हूँ॥

 

— (भाष्यकार – स्वामी दयानंद सरस्वती जी) (सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)

 

वेद बताते हैं कि आप भले ही किसी भी ईश्वर रूप की उपासना करते रहें, चाहे शिव रूप की या माता रूप की, किन्तु आपकी आहुति इन तक तब तक नहीं पहुच सकती है जब तक आप अग्नि में आहुति ना दें। इसलिए अग्नि को देवताओं का मुख बताया गया है. तो अब आप समझ रहे हैं ना कि अग्नि देवताओं की पूजा में कितनी महत्वपूर्ण है?

अग्नि देवताओं का मुख है। आप जब खाना खाते हैं तो आप अपने मुंह में भोजन डालते हैं, इसी प्रकार से देवताओं को उद्देश्कर दिया जाना वाला हविभार्ग अग्नि में ही अर्पण किया जाता है।

वेद बताते हैं कि व्यक्ति को कभी भी अग्नि का अपमान नहीं करना चाहिए। अग्नि के प्रति आदर रखें और अग्नि की नित्य रोज पूजा की जानी काफी जरुरी है।

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