सर्वेश तिवारी श्रीमुख : सनातन व्यवस्था से चुपचाप सेवा कैसे होती है यह क्रोसीन बांट कर भारत का सर्वोच्च सम्मान लेने वाले तो जरूर ही सीखें

प्रयाग में सन्तों के लगभग हजार शिविर लगे हुए हैं। भव्य शिविर! कई सौ लोगों के ठहरने लायक, भोजन आवास की अच्छी सुविधा के साथ… कुछ छोटे शिविर हैं, कुछ बड़े, कुछ बहुत बड़े… सबको जोड़ लें तो लाखों लोगों को भोजन आवास की सुविधा मिली हुई है।
इस सभी शिविरों में अन्नक्षेत्र चलते हैं। निःशुल्क! अच्छा और स्वादिष्ट भोजन। सारे शिविरों में प्रतिदिन प्रसाद पाने वालों की संख्या जोड़ लें तो कई लाख में जाएगी। यह मेले में सन्तों की ओर से सेवा है। यह चुपचाप चल रहा है, बिना किसी हो-हल्ला के, बिना पब्लिसिटी के…
ऐसा नहीं कि सारे शिविर संतों के ही हों। कथावाचकों के, धार्मिक संगठनों के, संस्थाओं के… इन्हें चलाने वाले वैरागी भी हैं, गृहस्थ भी… मेला शुरू होने के दो महीने पहले से तैयारियों में लगे हैं वे लोग! और पूरे मेले के लिए जैसे वहीं बस ही गए हैं।
जिस भीड़ में हमारे आपके लिए पाँच किलोमीटर चलना कठिन हो रहा है, उसी भीड़ में वे दस किलोमीटर चल कर दूध लाते हैं कि लोगों को चाय पिला सकें। उसी भीड़ और जाम में घण्टों फँस कर वे हरी शब्जी लाते हैं ताकि तीर्थ यात्रियों को प्रसाद पवा सकें। इसके बाद वे रात को तीन बजे तक जगते भी हैं क्योंकि रात बिरात पहुँचने वाले परिचितों के लिए व्यवस्था भी बनानी है, भोजन भी कराना है।
इनके खर्च की सोच कर हम जैसे सामान्य गृहस्थों का होश उड़ जाता है। भकुआ के कहते हैं- इतना पैसवा कहाँ से आया होगा रे? और फिर अपने मन की कलुषता को कालिख से ही पोंछते हुए उत्तर भी सोच लेते हैं- “अरे जरूर किसी बड़े सेठ साहूकार नेता मंत्री से लेते होंगे ये लोग! वरना इतना धन कहाँ से आएगा भला!” क्या कहें, अपने बड़ों पर अविश्वास करने की लत जो लग गयी है हमें! खैर…
मैं दो दिन गङ्गा महासभा के शिविर में ठहरा था। वही शिविर, जिसके व्यवस्थापक गोविंद शर्मा जी लगभग रोज ही अपने फेसबुक प्रोफाइल से लिखते हैं कि “आइये! हमारे शिविर में स्थान कम हो सकता है, पर हृदय में बहुत स्थान है। रहिये, प्रसाद पाइए, गङ्गा नहाइये…”
गोविंद जी जो कह रहे हैं वह केवल उनका स्वर नहीं है, यही अधिकांश शिविरों, संघठनों, सन्तों का स्वर है, यही सनातन का मूल स्वर है। सभी अपने सामर्थ्य से अधिक सेवा कर रहे हैं। हाथ जोड़े, सर झुकाए…
यह भी सच है कि करोड़ों की भीड़ में सबके लिए व्यवस्था नहीं हो सकती, पर जितनी हो सकती है उतनी व्यवस्था हुई है। यह सुखद है।
तमाम मीडियाई नकारात्मकता के बाद भी हर तीर्थ यात्रा सन्तों के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ा देती है। धर्म पर मेरा भरोसा बढ़ जाता है, अपनी धार्मिक व्यवस्था पर विश्वास बढ़ जाता है।
संसार चाहे तो बहुत कुछ सीख सकता है सनातन व्यवस्था से। सेवा चुपचाप कैसे की जाती है, यह तो जरूर ही सीख लेना चाहिये। क्रोसीन बांट कर भारत का सर्वोच्च सम्मान लेने वाले तो जरूर ही सीखें।

सर्वेश कुमार तिवारी
गोपालगंज, बिहार।

Veerchhattisgarh

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