डॉ. भूपेंद्र सिंह : कुंभ.. पूरा दबाव दलित समाज ने बनाकर रखा हुआ है.. यहीं भारत है
पहले धार्मिक मेले में जाना दकियानूसी समझा जाता था और अब इसे कूल माना जा रहा है। यह बहुत बड़ा परिवर्तन है। इस परिवर्तन ने विपक्ष को पहले हरिद्वार और अब प्रयागराज में गंगा जी में डुबकी लगाने को मज़बूर कर दिया।
कभी ये और इनका पूरा खानदान सिर पर जालीदार टोपी लगाये, चेक वाला गमछा कंधे पर लटकाकर दिन रात स्वयं को मुसलमान साबित करने में लगा रहता था और आज इन्हें हिंदू बनने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
देश विचारधारा की दृष्टि में बहुत तेज परिवर्तन से गुज़र रहा है। यह परिवर्तन अधर्म और वामपंथ से हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की तरफ़ है, लेकिन यह हिंदुत्व और राष्ट्रवाद भारत को आगे के बजाय पीछे न खींचने पाये इसका पूरा दबाव दलित समाज ने बनाकर रखा हुआ है। यह अलग अलग विरोधी दिखने वाले पक्ष अंततः एक साथ खड़े हैं। दूर दृष्टि से दलितों का हिंदुत्व पर दबाव हिंदू समाज के लिए फायदेमंद साबित होने वाला है। उनकी मॉनिटरिंग यह स्पष्ट कर रही है कि वह अभी भी मूल की तरफ़ आशा रखें हुए हैं और समय के साथ वह परिवर्तन धीरे धीरे ही सही हो रहे हैं जिसकी आवश्यकता है। किसी प्रकार के किसी चिंता की आवश्यकता नहीं है। दलित समाज पर, बाबा साहेब अम्बेडकर पर, उनके बौद्ध मत के प्रति झुकाव पर, गौतम बुद्ध पर अनावश्यक अपमानकारी टीका टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। नाराज़गी है जो समय के साथ समाप्त हो जाएगी।
पिछले कुंभ में नए नए साधु बने एक शराब व्यापारी को बाद में महामंडलेश्वर बनाया गया था और जब बनाया गया था तब बाबा जी का व्यवसाय चल रहा था। कुंभ शंकर जी की बारात है। इसमे हर प्रकार के लोग होते है, हाँ, सबकी अपनी अपनी जगह होती है। मैं अर्धकुंभ के समय किन्नर अखाड़े गया था। एक प्रमुख संत के ज्ञान से थोड़ा मैं प्रभावित भी हुआ।
वहाँ एक और किन्नर संत मिली जिसने कहा कि सरदार पटेल की मूर्ति पर सरकार 3000 करोड़ खर्च कर रही है, यदि इसे आम लोगों में बाट दिया जाता तो प्रत्येक नागरिक को 20-25 करोड़ मिल जाता और देश की गरीबी मिट जाती। मैं उनके गणित के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ। यह जानकर और प्रभावित हुआ कि थर्ड जेंडर की लड़ाई को लेकर इन पर किताबें लिखीं जा चुकी हैं।
कुछ एक संतों के यहाँ खूब चहल पहल रहती थी। वासुदेवानंद जी महाराज के यहाँ हमेशा लोगों का जमावड़ा रहता था जबकि स्वरूपानंद जी और निश्चलानंद के यहाँ सन्नाटा पसरा रहता था। नागाओं के पास जाकर लोग उन्हें छेड़ते थे कि शायद गाली दे दें तो दिन बन जाये। कुंभ में अजब ग़ज़ब कुछ न कुछ होता रहता है। वहाँ एक से एक निर्लेप संत भी मिलते हैं तो एक से एक संत ऐसे भी मिलते हैं जो वस्तुतः संत के भेष में पॉलिटिशियन हैं। एक ऐसे ही संत जिनका अब बाज़ार गर्म है तब हम लोगों से खूब मिलते थे और मेरा उनको नाम नहीं याद था तो मुझे डॉक्टरों का नेता कहते थे। ऐसे भी संत थे जो की जड़ी बूटी लेकर मस्त रहते थे, ऐसे भी थे जिन्हे न दर्शन पता था, न भक्ति लेकिन नदी की धारा की तरह इस नदी में बहते चले गए। जंगम जोगी भी मिले जो सिर पर मोरपंखों से श्रृंगार करके नागाओं और संतों तक से दान लेते गाते बजाते दिख जाते। कहीं कोई एक हाथ वर्षों से उठाए तपस्या कर रहा है, तो कोई बीसों वर्षों से राम मंदिर की प्रतीक्षा में मौन धारण किए है। कोई इतना लंपट की नए नवेले चेले उसके पास जाने से डरते। अलग अलग संगठन, विचारधारा के टेंट, तंबू पंडाल, पूजा पद्धति, झंडे। सब एक साथ एक जगह, अलग अलग होकर भी बेतरतीब से सही लेकिन इंडियन ट्रैफिक की तरह अंततः चलते दिखाई पड़ते हैं।
कुंभ में द्रष्टा भाव से जाइए, कोई आइडियलिज्म की खोज की भावना और किसी आइडियोलॉजी से भरकर मत जाइए। अंततः यह मेला है। मेले में मिलना होता है और हर तरह के लोग वहाँ मिलते हैं। उसको देखिए, यहीं भारत है। अच्छा बुरा सब है लेकिन सब अंततः धीरे धीरे एक दूसरे को स्वीकार करके चल रहे हैं।
