रायपुर आगमन 17 नवंबर (रविवार) मास्क मैनिफेस्टो के लेखक पवन विजय.. यही तो है मेनिफेस्टो का मास्क्ड होना
रायपुर। चिंतन सभागार, अशोका मिलेनियम, 5वें फ्लोर, न्यू रिंग रोड नंबर-1, रायपुर में 17 नवंबर, रविवार को सुबह 11 बजे मास्क मैनिफेस्टो के लेखक पवन विजय रायपुर आ रहे हैं।
लेखक पवन विजय की पुस्तक मास्क मैनिफेस्टो इन दिनों अमेजन पर सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों की श्रेणी में आ गई है।
कुमारी वंदना इस पुस्तक को लेकर लिखती हैं..
कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिसे पढ़कर ऐसा लगे कि ठीक वही तो लिखा है, जो हम सोचते/बोलते हैं। मास्क मेनिफेस्टो पढ़ते समय बहुत बार बहुत जगह ऐसा ही लगा।
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पौराणिक कथाएँ तो झूठी हैं, पर महिषासुर सच में था। नारीवादी होना चाहिए और स्त्रियों को चयन का अधिकार सूर्पनखा के संदर्भ में तो होना चाहिए, लेकिन देवी दुर्गा के संदर्भ में स्त्रियों के शुभचिंतक सब एक स्त्री के विरोध में पुरुष को विक्टिम साबित करने लगते हैं। उस पुरुष को, जिसकी विशाल सेना थी, इतनी विशाल की देवता नहीं जीत पा रहे थे।
पूर्वजों के कार्यों को याद करना, उस पर गर्व करना तो बेकार है और जातिवाद और जाति विभाजन तो बुरा है, लेकिन कुछ जातियों को हर पल याद दिलाना है कि तुम फलां जाति के हो, जिसके पूर्वजों पर अन्याय हुआ है और जिसकी फलां जातियों से दुश्मनी होनी चाहिए, अपने पूर्वजों का बदला लेना चाहिए, यह बात बात पर बताना जरूरी है।
कन्वर्टेड आकर कहते हैं कि छठ के घाटों पर उच्च जातियों के घाट अलग होते हैं और निम्न जातियों के अलग। वे कहते हैं कि अर्घ्य तो पुरोहितों से ही दिलवाया जाता है न! और उनकी बात को गलत बताने पर वे झुंझलाहट में सामने वाले को झूठा या गलत बताने लगते हैं, जबकि ये भी मानते हैं कि उन्होंने कभी छठ नहीं देखा।
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धर्म की बात करना साम्प्रदायिक होना है, लेकिन हर वक्त वह एक खास धर्म के विरोध में और दूसरे खास धर्म के समर्थन में बोलते मिलते हैं। यह साम्प्रदायिकता नहीं है।
पूँजीवाद बुरा है, पूँजीपति बुरे हैं, लेकिन एक पूँजीपति की मदद से ही मार्क्सवाद पनपा भी है। तो एंगेल्स जैसे पूँजीपति से मदद लेते समय वे अच्छे हो जाते हैं, जबकि एंगेल्स ने अपनी संपत्ति मजदूरों में नहीं बाँटी। और पूँजीवाद का विरोध करने वाले खुद पूँजी जुटा ही रहे हैं, अपने पैसे कहीं चैरिटी में नहीं लगा रहे। दूसरों को समाज सेवा सिखाने वाले खुद चंदा माँग माँगकर उसका बंदरबांट करके अमीर हुए जा रहे।
उन्हें पता है कि सबका विकास हो जाए, गरीबी खत्म हो जाए तो सबसे पहले उनकी ही गरीबी और अत्याचार के प्रचार के बलबूते चल रही दुकान बंद होगी; इसलिए वे गरीबों की बात तो करते हैं, पर चाहते हैं कि गरीबी बनी रहे, पिछड़ापन बना रहे। यही तो उनके आधार हैं।
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राष्ट्रीयता में उनका यकीन नहीं। वसुधैव कुटुम्बकम, ग्लोबलाइजेशन में यकीन है। यही कहकर वह इस आरोप पर सफाई देते हैं कि चीन के आक्रमण के समय उन्होंने जश्न मनाया था। पर चीन तो राष्ट्र की सीमाओं के मामले में बिल्कुल उदार नहीं है। रूस भी नहीं रहा है उदार। राष्ट्र की सीमाओं के बारे में दोनों कम्युनिस्ट देश कट्टर साम्राज्यवादी मानसिकता के रहे हैं। फिर यह ग्लोबलाइजेशन, पूरा विश्व एक है का उद्घोष तो दोमुँहापन ही है न! वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा भी एक सनातनी अवधारणा ही है, उनकी नहीं हो सकती।
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असलियत कुछ और है और दावे कुछ और। यही तो है मेनिफेस्टो का मास्क्ड होना
काफी कुछ इन सभी बातों पर लिखा मिला मुझे। पूरी किताब अभी पढ़ा नहीं है, पर प्रोफेसर पवन विजय जी द्वारा लिखी इस किताब को अत्यंत समयाभाव में भी एक तरह से पढ़ ही लिया उलट पलटकर कल जब मिला, तबसे आज तक, और लिखने से भी नहीं रोका खुद को, ताकि अगर किसी और को मुझसे इसके बारे में पता चले तो वे कम्युनिज्म के मुखौटे के भीतर का सच जानने के लिए इसे पढ़ना चाहें तो पढ़ सकें। किताब अमेजॉन डॉट इन पर उपलब्ध है।
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