अमित सिंघल : टैक्स.. क्या सरकार केवल पुलिस, सेना और ज्यूडिशियरी तक सीमित की जा सकती है?

पठनीय विश्लेषण-

केंद्र के बजट तो एक अलग एंगल से देखने का प्रयास करते है।
मानिए कि सरकार को विभिन्न स्रोतों से कुल एक रुपया मिलता है।
अब वह एक रुपया कैसे व्यय होता है?

वर्ष 2013-14 में 12 पैसा सब्सिडी के रूप में दिया जाता था।
इस बार केवल 6 पैसा सब्सिडी पर जाएगा।

पहले केंद्रीय योजनाओ पर 21 पैसा जाते थे। अब 24 व्यय हो रहे है।

पहले डिफेन्स पर 10 पैसा लगता था। अब 8 पैसा जा रहा है। लेकिन बजट का 10 प्रतिशत डिफेन्स में जाने के बाद भी हथियार एवं लड़ाकू विमान खरीदने का पैसा नहीं था। उस समय के रक्षा मंत्री ने स्वयं यह कहा था। आज 8 प्रतिशत शेयर के बाद भी कोई कमी नहीं है।

पहले राज्यों को 28 पैसा भेजा जाता था। आज 30 पैसा मिल रहा है।
दोनों कालखंड में पेंशन में 4 पैसा जाता है।

पहले उधारी पर ब्याज देने पर 18 पैसे घुस जाते थे, आज 19 पैसे जा रहे है।
पहले भी उधारी पर लिए गए 27 पैसा का योगदान बजट में था; आज भी 27 पैसे की उधारी बजट में जाती है।

अन्य व्यय पर 7 पैसा जाता था; आज 9 पैसा घुस जाता है। इस अन्य में ऐसे व्यय सम्मिलित होते है जो किसी पूर्वनिर्धारित केटेगरी में नहीं आते। सभी मंत्रालयों में “अन्य” की व्यवस्था होती है। जैसे कि IITs, AIIMS, परमाणु जैसे विषय भी आते है। संभव है कुछ अज्ञात गतिविधियां भी यही से फंड होती हो।

अब आते है कि सरकार का क्या रोल है? और क्या सरकार केवल पुलिस, सेना और ज्यूडिशियरी तक सीमित की जा सकती है?

पहला प्रश्न – सरकार है कौन? क्या आप सरकार है या मैं सरकार हूँ? या अखिलेश-राहुल सरकार है?

क्या कनाडा में खालिस्तानियों की सरकार है? अर्थात, अगर सरकार चाहिए, तो एक राज्य या राष्ट्र भी चाहिए। उस राष्ट्र के लिए एक सुनिश्चित भूभाग एवं जनता भी चाहिए।

अर्थात, अगर सरकार है, तो उस सरकार के आने की एक प्रक्रिया है। और फिर उस सरकार को सम्प्रभुता से भी लैस करना होगा।

अगर सरकार आने की प्रक्रिया है, तो उसकी एकाउंटेबिलिटी के लिए भी कुछ होना चाहिए। आखिरकार सेना, पुलिस, ज्यूडिशियरी कहीं वैक्यूम से तो आ नहीं गए है।

उसके लिए संसद, बजट बनाने वाला, रिक्रूटमेन्ट के लिए नियम बनाने वाला, रिक्रूट करने वाला चाहिए, लेखा-जोखा रखने वाला चाहिए। उसका ऑडिट करने वाला चाहिए। डिफेन्स, गृह, वित्त एवं कानून मंत्रालय चाहिए। अगर संसद है, तो सांसदों को चुनने की व्यवस्था करनी होगी; उनको भी पे करना होगा।

फिर, अगर आप एक टापू पर रहते है, मानव सभ्यता से दूर; अगर आप स्वयं की निजी जल, मल-मूत्र निकासी, स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा, आतंरिक एवं वाह्य सुरक्षा, पूँजी, बैंकिंग, विनिमय दर, हवाई अड्डा, रेल इंफ्रास्ट्रक्चर, हाइवेज, आपदा/दुर्घटना के समय राहत एवं बचाव, अन्य व्यक्तियों के साथ जान-माल की सुरक्षा का समझौता कर सकते है तो किसी भी वेलफेयर स्टेट की आवश्यकता नहीं है।

फिर आपको व्यापार भी करना है। ऐसा तो नहीं है कि आप दाल, चावल, दूध, नमक, चीनी, तेल, ईंधन, बर्तन, कपड़ा, मरहम-पट्टी, इंटरनेट इत्यादि की व्यवस्था स्वयं कर लेंगे।

अगर दूसरे राष्ट्रों से चाहिए, तो समझौता करना होगा, ट्रांसपोर्टेशन के लिए बहुपक्षीय व्यवस्था करनी होगी। नहीं तो आप का शिप कोई पकड़ के धर लेगा और आप कुछ नहीं कर सकते। इसके लिए विदेश, कॉमर्स, पेट्रोलियम, शिपिंग, हवाई मंत्रालय चाहिए।

अब समाज में अलग-अलग क्षमता के बच्चे होते है, युवा-युवतियां होते है। उनके लिए भी सरकार को व्यवस्था करनी होती है।

क्या कहा? निजी क्षेत्र करेगा? फिर सरकार को कौन चुनता है? आप तो टापू पर रहना चाहते है, मानव सभ्यता से दूर।

मैं नहीं कर सकता; अतः मुझे राज्य की आवश्यकता है। अगर राज्य है तो सरकार है।

अगर सरकार चुनी जाती है, अर्थात लोकतंत्र है तो सरकार को नागरिको का वेलफेयर भी करना पड़ेगा।

आप भाजपा को वोट मत दीजिए। विपक्षी दल आपके पुश्तैनी गहने भी निकलवा लेगा। कहाँ बांटेगा, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है।

इस विषय पर सार्थक, विस्तृत विचार-विमर्श के लिए तैयार हूँ।

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