ध्रुव कुमार द्विवेदी : कल्कि.. बिना सर पैर की दो कौड़ी की फिल्में देखने वाले इसे पसंद नहीं करेंगे

फिल्मों का यूनिवर्स…

कल कल्कि फ़िल्म रिलीज हुई है। मैंने अभी तक देखी नही है लेकिन कोशिश करूंगा जल्द देखूं। इसीलिए स्टोरी और प्लाट पर बात करने का कोई मतलब नही है।

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हालांकि अभी तक जो प्रतिक्रियाएं आ रही है और दर्शकों का जो फीडबैक है उससे यह तय है कि फ़िल्म ठीक है और भारतीय फिल्म जगत में नया प्रयोग है अर्थात विज्ञान और सनातन धर्म को मिलाकर एक कॉन्सेप्ट तैयार किया गया है जो वाकई में सराहनीय प्रयास है।।

देखिए कुछ ऐसे लोग तो इस फ़िल्म को रद्दी कहेंगे ही जो टिपिकल बॉलीवुडिया मसाला और बिना सर पैर की दो कौड़ी की फिल्में देखना पसंद करते हैं, इसके अलावा वामपंथियों को भी यह फ़िल्म रास नही आ रही है।

साथ ही वर्तमान रील के युग में जो लोग एक मिनट का कंटेंट देखने के आदी हो गए हैं उनको तो तीन घण्टे की कोई विश्वस्तरीय फिल्म अब समझ में नही आएगी। उन्हें तो लार्ड ऑफ द रिंग, interstellar, जैसी फिल्में भी कूड़ा लगती है तो उनकी तो बात ही मत करिए।।

मैं यह नही कह रहा हूँ कि फ़िल्म में कुछ कमियां नही होगी, हो सकती हैं। हो सकता है कहानी कहीं थोड़ी स्लो हो, जबरन कॉमेडी डाल दी गई हो। आपको यह भी लग सकता है कि इसकी कहानी के कुछ कॉन्सेप्ट स्टारवार, आदि फिल्मों से लिए गए हैं।

लेकिन कम से कम यह तो मानिए कि इस तरह के टॉपिक पर अब प्रोड्यूसर और डायरेक्टर हाथ डाल रहे हैं रिस्क ले रहे हैं, आगे सुधार भी करेंगे।

हां मैं यह बात मानता हूं कि अभी भी भारतीय फिल्मों में उतनी गहराई और मेहनत नही दिखती हैं जितनी हॉलीवुड के लेखक, निर्माता, एक्टर, डायरेक्टर करते हैं।

बात सिर्फ बजट की नही है बल्कि लेखन से ही शुरू होती है। भारतीय फ़िल्म जगत खासकर बॉलीवुड के साथ मुख्य समस्या यह है कि यहाँ कहानी फ़िल्म और दर्शकों को ध्यान में रखकर नही लिखी जाती है बल्कि एक्टर को ध्यान में रखकर लिखी जाती है

इसीलिए फ़िल्म में हमें कलाकर का किरदार नही दिखता है बल्कि वहाँ भी सलमान खान अक्षय कुमार दिखते हैं जबकि ‘ट्रॉय’ फ़िल्म में हमें ब्रेड पिट नही दिखते हैं बल्कि अखिलीस दिखता है।

इसके अलावा हिन्दी फिल्मों खासकर बॉलीवुड में भी आजकल सीक्वल बनाने का भूत सवार हुआ है लेकिन बॉलीवुड की ज्यादातर सीक्वल फिल्में दो कौड़ी की रद्दी और बकवास होती हैं।

इसका कारण यह है कि ये लोग जब एक फ़िल्म हिट हो जाती है तब उसके दूसरे पार्ट को सिर्फ पैसा कमाने के लिए लिखते हैं। जिस कारण न तो कहानी में कोई तारतम्य होता है, न ही दर्शक उससे जुड़ पाते हैं बल्कि जबरन थोपी हुई बकवास कहानी लगती है।

जबकि जितनी भी कालजयी व सफ़ल यूनिवर्स आधारित अर्थात सीक्वल बेस्ड फिल्में हैं उनको उठाकर देख लीजिए उसमें डायरेक्टर और लेखक ने पहले से ही पूरी कहानी का खाका तैयार किया होता है उसके बाद फ़िल्म बनाते हैं। हालांकि थोड़े बहुत बदलाव होते हैं लेकिन कहानी कनेक्ट रहती हैं।

जैसे लार्ड ऑफ द रिंग, पाइरेट्स ऑफ कैरिबियन, हैरी पॉटर, मार्वल यूनिवर्स, आयरन मैन, यहाँ तक बाहुबली, KGF की सफ़लता का कारण भी उसकी कहानी है ।।।

इससे होता यह है कि दर्शक जब फ़िल्म देखता है तो वह कहानी और भव्यता को देखता है नाकि एक्टर को देखता है।

सबसे सफ़ल फ़िल्म और एक्टर तो वही है जिसे पब्लिक उसके असली नाम की जगह पर उसके कैरेक्टर और निभाए गए किरदार के आधार पर सालों तक याद रखे।

जैसे आयरन मैन की मुख्य सफ़लता यह है कि ज्यादातर लोग आयरन मैन का मूल नाम ही नही जानते हैं बल्कि आयरन मैन या टोनी स्टॉक के नाम से ही जानते हैं, इसी तरह बैटमैन फ़िल्म के एक्टर क्रिस्टियन बेल का नाम ज्यादातर लोग नही जानते हैं, मैट्रिक्स फ़िल्म के एक्टर को भी ज्यादातर लोग नियो के नाम से जानते हैं, इसी तरह पाइरेट्स ऑफ कैरिबियन और लार्ड ऑफ द रिंग के कलाकारों को नाम से बहुत कम लोग जानते हैं।

वास्तव में रॉबर्ट डाउनी जूनियर की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है वो आज पूरी दुनिया में आयरन मैन के नाम से विख्यात है। इससे ज्यादा और क्या चाहिए एक कलाकार को।

इसके अलावा कालजयी फिल्मों के संवाद भी हमेशा अमर हो जाते हैं चाहे लार्ड ऑफ द रिंग के डायलॉग हो, चाहे थायनोस का आयरन मैन से कहना “तुम मेरे जैसे ही हो तुम्हें भी ज्ञान का श्राप मिला हुआ है लेकिन मैं वो अनहोनी हूँ जिसे कोई टाल नही सकता है।”…..

मैं तो फ़िल्म देखने के साथ कुछ स्क्रिप्ट भी पढ़ा हूँ कसम से डायलॉग सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि क्या डायलॉग है।

इसके अलावा इस तरह की यूनिवर्स और सीक्वल फिल्में बनाने के लिए आपको समय देना पड़ता है, वो भी एक ही प्रोजेक्ट पर दस दस साल तक बड़े कलाकर देते हैं। उसके अलावा कोई दूसरा रोल नही करते हैं क्योंकि उस समय दर्शक उन्हें उसी रूप में देखना चाहते हैं।

हैरी पॉटर में एक लड़के का करेक्टर कितने करीने बनाया गया है, लार्ड ऑफ द रिंग के कलाकारों ने आठ साल दिए हैं, जॉनी डिप ने दस साल पाइरेट्स ऑफ कैरिबियन के लिए दिए हैं, रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने पन्द्रह वर्ष आयरन मैन के किरदार को दिए हैं तब आज वे पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं।

बॉलीवुड से तो ऐसी कोई उम्मीद नही है इसीलिए मैंने देखना ही छोड़ दिया है। हां साउथ वाले अच्छा कर रहे हैं और कुछ अलग दिखाने का प्रयास कर रहे हैं तो उनकी तारीफ होनी चाहिए व उनका समर्थन होना चाहिए।

अतः कल्कि एक अच्छा प्रयास है इसको सपोर्ट किया जाना चाहिए ताकि और भी फिल्मकार ऐसी फिल्में बनाने के लिए प्रोत्साहित हो।

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