विनय कुमार : यूक्रेन शांति सम्मेलन, साझे बयान में नहीं शामिल हुआ भारत
यूक्रेन में शांति के लिए 90 से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि स्विट्जरलैंड पहुंचे। यह कोशिश कितनी कामयाब रही, इस पर अलग-अलग राय है। बैठक में भारत शामिल तो हुआ, लेकिन उसने साझे बयान से खुद को अलग कर लिया।
दोनों पक्षों की सेनाएं पीछे हटेंगी और इसकी व्यवस्था क्या होगी। हालांकि, सम्मेलन की शुरुआत से पहले भी यह स्पष्ट था कि मौजूदा स्थितियों के मद्देनजर यह बैठक अपने लक्ष्य में बहुत महत्वाकांक्षी नहीं है।
15 जून को सम्मेलन की शुरुआत से पहले यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने कहा, हम कूटनीति को एक मौका देने में कामयाब हुए हैं। राष्ट्रपति जेलेंस्की और स्विस सरकार की पहल पर हुई इस वार्ता में कुल 92 देश और आठ अंतरराष्ट्रीय संगठन शामिल हुए। लेकिन एक बड़ा सवाल था कि क्या इस बड़े जमावड़े भर से युद्ध रोका जा सकेगा और अमन बहाली हो सकेगी?
वार्ता की सफलता पर संदेह की एक बड़ी वजह है, रूस की गैरमौजूदगी। युद्ध रोकने के लिए रूस पर दबाव बनाना, उसे वार्ता की मेज पर लाना जरूरी है। साथ ही, चीन जैसे रूस के मित्र देशों को शांति प्रयासों में भागीदार बनाना भी जरूरी है। कई जानकार इस ओर ध्यान दिला रहे थे कि ऐसे सम्मेलन मुख्य रूप से उन्हीं देशों को साथ ला रहे हैं, जो पहले ही यूक्रेन युद्ध पर एकमत हैं और लगातार रूसी हमले और आक्रामकता का विरोध करते आए हैं। जबकि, लक्ष्य होना चाहिए मत के दूसरी ओर खड़े और किसी न किसी रूप में रूस का साथ दे रहे देशों को साथ लाना।
जैसा कि ऑस्ट्रिया के चांसलर कार्ल नेहामर ने कहा, हम जैसे किसी पश्चिमी ईको चैंबर में हैं। हम सब सहमत हैं, लेकिन बस इतना काफी नहीं है। एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के कई हिस्सों के बिना हम रूस को अपना विचार बदलवाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे।
ऑस्ट्रियाई चांसलर ने ध्यान दिलाया कि भारत, ब्राजील, चीन और दक्षिण अफ्रीका की मौजूदगी खासतौर पर जरूरी है। हालांकि, उन्होंने थोड़ी आशा जताते हुए यह भी कहा, यह महत्वपूर्ण है कि भारत और ब्राजील ने बैठक में अपने प्रतिनिधि भेजे, भले ही वे मंत्री स्तर के नहीं हैं, फिर भी यह भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है।
इन सवालों के बीच स्विट्जरलैंड की राष्ट्रपति वियोला एमहर्ड ने स्पष्ट किया कि सम्मेलन के लक्ष्य बहुत महत्वाकांक्षी नहीं हैं। उन्होंने कहा, हमारे लक्ष्य सीमित हैं। एमहर्ड ने कहा कि सम्मेलन का मकसद स्थायी शांति कायम करने की प्रक्रिया को प्रेरणा देना है। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय कानून दुनिया में व्यवस्था बनाए रखने के आधार हैं और रूस का हमला बेहद गंभीर तरीके से इसका उल्लंघन करता है।
स्विट्जरलैंड पिछले कई महीनों से इस सम्मेलन को सफल बनाने की कोशिश कर रहा था। वह ज्यादा से ज्यादा देशों को बैठक में हिस्सा लेने के लिए राजी कर रहा था। 160 देशों को न्योता भेजा गया और करीब 92 देशों ने इसे मंजूर किया। जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज, इटली में जी7 सम्मेलन से सीधे स्विट्जरलैंड पहुंचे तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी जी7 में आए थे, लेकिन वह एक चुनाव अभियान के लिए अमेरिका लौट गए और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस सम्मेलन में शामिल हुईं।
स्विट्जरलैंड ने भारत को भी साथ लाने की कोशिश की। फरवरी 2024 में स्विट्जरलैंड के विदेशमंत्री इंग्यांसियो कासिस भारतीय विदेशमंत्री एस. जयशंकर के साथ वार्ता के लिए दिल्ली पहुंचे। फिर यूक्रेन के विदेश मंत्री दिमित्रो कुलेबा अप्रैल में भारत आए। लेकिन भारतीय अधिकारियों ने कहा कि सरकार ने अभी फैसला नहीं लिया कि भारत सम्मेलन में शामिल होगा या नहीं और अगर होगा तो कौन प्रतिनिधित्व करेगा।
मई में भी स्विट्जरलैंड के विदेश सचिव एलेक्सांड्र फाजल भारत को राजी करने के लिए दिल्ली पहुंचे। यहां उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा कि स्विट्जरलैंड के लिए यह अहम है कि भारत और ब्रिक्स (रूस के अलावा सभी) के अन्य देश सम्मेलन में हिस्सा लें।
फाजल ने इस बात पर जोर दिया कि इन देशों की भागीदारी ना केवल रूस को एक संदेश देगी, बल्कि भविष्य में जब कीव और मॉस्को वार्ता के लिए साथ आएंगे, तब भी भारत जैसे देश बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए इंटरव्यू में फाजल ने कहा, भारत दुनिया का दोस्त है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय सच में उम्मीद करता है कि भारत इस शांति प्रक्रिया में योगदान दे। लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने लोकसभा चुनाव 2024 का हवाला देकर कहा कि उसने अभी शामिल होने पर फैसला नहीं किया है।
उम्मीदों के अनुरूप, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों जी7 सम्मेलन में हिस्सा लिया, लेकिन वह स्विट्जरलैंड नहीं आए। भारत ने विदेश मंत्रालय के एक सचिव पवन कुमार को प्रतिनिधित्व के लिए भेजा। इसी तरह ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा भी जी7 बैठक में पहुंचे, लेकिन स्विट्जरलैंड नहीं आए। ब्राजील केवल पर्यवेक्षक के तौर पर सम्मेलन में शामिल हुआ। रूस के एक और करीबी सहयोगी दक्षिण अफ्रीका ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भेजा था।
जर्मनी ने रूस के साथ वार्ता का समर्थन किया है। हालांकि, जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज ने यह भी माना कि अभी यह संभावना बहुत दूर दिखती है। शोल्ज ने स्विस सम्मेलन की तुलना ऐसे नन्हे पौधे से की, जो नाजुक है और उसे सींचने की जरूरत है। शोल्ज बोले, लेकिन हम चाहते हैं कि बागीचा फलेफूले और संवरे।
जर्मन चांसलर शोल्ज ने स्पष्ट तौर पर कहा कि यूक्रेन में शांति लाने की प्रक्रिया में रूस को भी शामिल किया जाना चाहिए। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा, यह सच है कि रूस को शामिल किए बिना यूक्रेन में शांति हासिल नहीं की जा सकती है। शोल्ज ने रूस से मांग की कि वह यूक्रेन के कब्जे वाले इलाकों से बाहर निकल जाए।
इस दिशा में अगला सम्मेलन कब होगा, यह अभी तय नहीं है। हालांकि, स्विट्जरलैंड ने उम्मीद जताई है कि साल के अंत तक इस बारे में कोई फैसला ले लिया जाएगा। अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपति वियोला एमहर्ड ने कहा, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के तौर पर हम संबंधित पक्षों के बीच सीधी बातचीत की जमीन तैयार करने में मदद कर सकते हैं।
खबरों के मुताबिक, अगला सम्मेलन सऊदी अरब में हो सकता है। सऊदी अरब के विदेशमंत्री फैजल बिन फरहान अल सऊद ने 15 जून को कहा कि उनका देश शांति प्रक्रिया में मदद के लिए तैयार है। उन्होंने आगाह भी किया कि सुलह के लिए मुश्किल समझौते करने पड़ सकते हैं।
जहां तक यूक्रेन और रूस की बात है, तो शांति प्रक्रिया के बारे में उनका मत काफी अलग है। पुतिन का कहना है कि लड़ाई खत्म करने की दो शर्तें हैं। पहली शर्त यह कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होगा। दूसरी शर्त है कि यूक्रेन उन चार प्रांतों को रूस के सुपुर्द कर देगा, जिन पर मॉस्को दावा करता है। ये प्रांत हैं, क्रमशः डोनेत्स्क, लुहांस्क, खेरसॉन और जेपोरेजिया।
यूक्रेन ने इन शर्तों को खारिज करते हुए कहा है कि पुतिन शांति नहीं चाहते, वह दुनिया को बांटना चाहते हैं। यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने कहा, रूस शांति की नहीं, बल्कि युद्ध जारी रखने, यूक्रेन पर कब्जा करने, यूक्रेनी लोगों को खत्म करने और यूरोप में आक्रामकता बढ़ाने की योजना बना रहा है। पुतिन अब भी वही शर्तें दोहरा रहे हैं, जो उन्होंने दो साल पहले रखी थीं। तमाम मतभेदों और गतिरोधों के बीच एक चीज स्पष्ट है कि यूक्रेन में युद्ध शुरू होने के करीब ढाई साल बाद भी शांति बहाली पर सहमति बनने की गुंजाइश अभी बहुत दूर दिख रही है।
