डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : जैसे अग्नि धुएं से घिरी होती है वैसे ही प्रत्येक कर्म में..
न उन्माद में जीना चाहिए और न अवसाद में जीना चाहिए, जीवन को सहज स्वभाव में जीना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
सहजं कर्म कौन्तेय
सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥
हे कौन्तेय! अपने सहज-स्वाभाविक कर्म को दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए, जैसे अग्नि धुएं से घिरी होती है वैसे ही प्रत्येक कर्म में कोई न कोई दोष रहता ही है।
मनुष्य अपने जीवन में अपने सहज स्वभाव को दुर्लक्ष कर सबसे अधिक धोखा अपने आप को देता है। प्रसिद्धि और पैसे की भूख में वह अपने स्वभाव की ओर देखने का साहस भी नहीं कर पाता, जिस कार्य में उसे प्रसिद्धि और पैसा दिखाई पड़ता है वहीं वह भागते चला जाता है।
जीवन में ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपने स्वभाव को पहचान पाते हैं और उसके साथ न्याय कर पाते हैं। ऐसे लोग उन अवसरों के आने पर भी जिसे समाज जीवन की सफलता का मापदण्ड मानता है उसे शान्ति पूर्वक छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। उन अवसरों को छोड़कर न वे त्याग का गान करते हैं और न ही दुखी होते हैं, क्योंकि वह उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं होता है। विज्ञान, कला, संगीत या समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों के मूर्धन्य लोग वही होते हैं जो अपने स्वभाव के साथ न्याय करते हैं।
अपने मूल स्वभाव को पहचानना और उस दिशा में कार्य करना यही साधना है। स्वभाव वह मूल प्रवृत्ति है जिसके साथ मानव जन्म लेता है। अध्यात्म की भाषा में इसे वासना कहते हैं। इस वासना के अनुरूप कर्म कर उससे मुक्त होने पर ही मानव को आनन्द प्राप्त होता है, लेकिन जब उसके अनुरूप कर्म नहीं होता तब अनेक उपलब्धियों के बाद भी आनन्द नहीं प्राप्त होता।
अब प्रश्न उठता है कि स्वभाव यदि हिंसक है तो क्या हिंसा करनी चाहिए? निःसंदेह, उसे हिंसा ही करना चाहिए, लेकिन अधिष्ठान में परिवर्तन हो जाना चाहिए। कोई भी कर्म अपने आप में न उत्कृष्ट होता है और न निकृष्ट होता है। उसका अधिष्ठान उसे उत्कृष्ट और निकृष्ट बनाता है। जब हिंसा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए हो तब वह पाप होती है और वही हिंसा जब लोक कल्याण के लिए हो तब पुण्य होती है।
डाकू का कर्म भी हिंसा है और सैनिक का कर्म भी, लेकिन दोनों के अधिष्ठान भिन्न-भिन्न हैं, एक अपने लिए हिंसा करता है तो दूसरा समाज के लिए। जीवन में आवश्यकता अधिष्ठान के परिवर्तन की है स्वभाव परिवर्तन की नहीं। यदि स्वभाव के विपरीत कार्य होता है तो व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में कभी भी न्याय नहीं कर पाता और बड़ी से बड़ी उपलब्धि के बाद कुण्ठाग्रस्त ही रहता है।
– डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह
