राजीव मिश्रा : Essence of Hinduism

बेटे ने मुझसे पूछा : तुम गॉड को कैसे देखते हो? एक ऐसे गॉड की कल्पना जिसने हर चीज को बैठकर बनाया, यह मुझे तो लॉजिकल नहीं लगता.

मैंने कहा – ईश्वर मेरे लिए एक पर्सन नहीं, एक कॉन्सेप्ट है. अब ईश्वर है या नहीं है यह इसपर निर्भर करता है कि आपका कॉन्सेप्ट कितना लॉजिकल या कितना स्टुपिड है. अगर आपके कॉन्सेप्ट में ईश्वर सफेद कोट सफेद दाढ़ी में बादलों में बैठा मॉर्गन फ्रीमैन है, या एक क्रूर अधीर ईर्ष्यालु व्यक्ति है जो उसे या उसके दूत की बात न मानने पर गर्म तवे पर सेंकता है तो यह कॉन्सेप्ट स्टुपिड है… इसमें ईश्वर की कोई गलती नहीं है.

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उसने पूछा – तुम्हारा ईश्वर का कॉन्सेप्ट क्या है?

मैंने कहा – मेरा कॉन्सेप्ट यह है कि ईश्वर हर बात का आदि कारण (रुट_कॉज) है. पहले इंसान सोचता था कि बारिश भगवान कराते हैं. जब उसे ज्ञान हुआ कि बारिश बादलों से होती है तो प्रश्न उठा कि बादल कैसे बनते हैं. जब उसे पता चल गया कि बादल पानी की भाप से बनती है तो अगला प्रश्न उठा कि पानी से भाप क्यों बनती है? इस तरह जैसे जैसे नए प्रश्न उठते गए उनके उत्तर खोजता गया और जैसे जैसे नए नए उत्तर मिलते गए वैसे वैसे नए प्रश्न उठते गए. जब उसके ज्ञान की सीमा खत्म हो जाती है तो आगे की घटनाओं के कारण उसे नहीं मिलते, तब हम उस कारण को आदि कारण मान लेते हैं. जैसे जैसे हमारे ज्ञान की सीमा बढ़ती जाती है, हम उस आदि कारण के अधिक और अधिक नजदीक पहुँचते जाते हैं. ईश्वर को जानने और पाने की यही प्रक्रिया मूलतः #ज्ञान_प्राप्ति की प्रक्रिया है. हर नया ज्ञान एक नई परत को खोलता है, हमें ईश्वर के, उस आदि कारण के और नजदीक ले जाता है.

उसने पूछा – बस, यही ईश्वर है! तब तो वहाँ तक कभी नहीं पहुँचोगे. उसे कभी नहीं जानोगे. तो कैसे जाने कि वह है ही.

मैंने कहा – मैंने कहा कि ईश्वर एक कॉन्सेप्ट है. जैसे मैथेमेटिक्स में इन्फिनिटी एक कॉन्सेप्ट है, और इन्फाईनाइटीस्मल एक दूसरा कॉन्सेप्ट है. तुम इन्फिनिटी पर कभी नहीं पहुँचते, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह कॉन्सेप्ट एक्सिस्ट नहीं करता.

बेटे ने पूछा – तब तो तुमने ईश्वर को नहीं जाना तो तुम एग्नोस्टिक (अनीश्वरवादी) हुए.

मैंने कहा – नहीं, मैं तो एग्नोस्टिक (संशयवादी) नहीं हूँ. मैं ईश्वर को नहीं जानता पर उस कॉन्सेप्ट को जानता हूँ जिसे मैं नहीं जान सकता. तुम स्वतंत्र हो एग्नोस्टिक होने के लिए… जबतक तुम्हारे कॉन्सेप्ट स्पष्ट ना हो जायें.

बेटे ने पूछा – बस, इतना ही कॉन्सेप्ट है ईश्वर तो मुझे नहीं लगता कि एक लॉजिकल व्यक्ति को इस कॉन्सेप्ट से कोई आपत्ति हो सकती है. पर यह कॉन्सेप्ट तो किसी का भी हो सकता है. तुम भी शायद इस निष्कर्ष पर अपने लॉजिक से ही पहुँचे हो ना कि कोई किताब पढ़ कर. तो जरूरी तो नहीं कि यह कॉन्सेप्ट एक हिन्दू का ही हो… किसी का भी हो सकता है.

मैंने कहा – बिल्कुल. पर जो भी व्यक्ति अपनी स्वतंत्र सोच और लॉजिक से किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है वह हिन्दू ही है. गैलीलियो और कोपर्निकस हिन्दू ही थे, अगर वे हिन्दू परम्परा में होते तो ऋषि गिने और पूजे जाते. ईसाई परम्परा में तो दण्डित हुए.

जो सोच हमें और तुम्हें मिली है वह हिन्दू होने की वजह से मिली है. तुम इसे टेकन_फ़ॉर_ग्रांटेड लेते हो, पर तुम्हारे आस पास कोई मुस्लिम फ्रेंड भी है क्या जो ऐसे स्वतंत्र सोचता है या अगर अपवादस्वरूप कोई सोचे भी तो उसकी रिलीजियस टीचिंग उसे अप्रूव करती हो?

तो हमारा और तुम्हारा हिन्दू होना, अपनी हिन्दू_आइडेंटिटी को एसर्ट करना क्यों जरूरी है? क्योंकि जिस परम्परा से हमें यह मिला है उस परम्परा के योगदान को एकनॉलेज तो करना चाहिए. जो मिला है उसका मूल्य तो चुकाना चाहिए. जो इंस्टीट्यूशन हमें यह स्वतंत्रता दिलाता है, उसको बचा कर रखने की ड्यूटी भी हमारी है नहीं तो स्वतंत्र सोच और लॉजिक का यह इंस्टिट्यूशन मर जायेगा, मार दिया जाएगा… फिर कोई सोचने के अपराध के लिए जिन्दा जला दिया जाएगा, जेल में डाल दिया जाएगा, किसी का सर सच बोलने के लिये काट डाला जाएगा, संगसार कर दिया जाएगा…किसी को सत्ता से असहमत होने के अपराध के लिए गुलाग में डाल दिया जाएगा, उसके परिवार को उसकी आँखों के आगे गोली मार दी जाएगी. तुम जिस सोचने के अधिकार को छोटा सा अधिकार समझते हो, वह हमारे पूर्वजों का हमें दिया हुआ सबसे बड़ा गिफ्ट है, सबसे मौलिक अधिकार है. पूरी सभ्यता बस इस एक छोटी सी बात से उपजी है. इसे बचाकर रखना है तो इसके उद्गम को, इसके स्रोत को बचाने के लिए खड़ा होना होगा, वरना आने वाली पीढ़ीयों को साँस लेने के अधिकार जितना सहज और मौलिक यह अधिकार नहीं मिलेगा.

 

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