कमलकांत त्रिपाठी : याद हो कि न याद हो ..गीता में कर्म-विमर्श
याद हो कि न याद हो:
गीता में कर्म-विमर्श
बहुत लोकप्रिय श्लोक है। लोगों की ज़बान पर रहता है–
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि॥2:47॥
[तुम्हें कर्म करने का ही अधिकार है, कर्म के फल पर कदापि नहीं। (इसलिए) तुम अपने को कर्मफल का कारण मत मानो, न ही निष्क्रियता का आश्रय लो।]
क्यों? क्या यह महज़ उपदेश है? हो सकता है, यही वस्तुस्थिति की अनिवार्यता हो।
कर्म की सिद्धि केवल कर्ता पर निर्भर नहीं करती। गीता में कार्यसिद्धि के (मोटे तौर पर) पाँच घटक बताए गये हैं, जिनमें कर्ता केवल एक है–
अधिष्ठान तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्॥18:14॥
[एक–कर्म का अधिष्ठान, दो– (कर्म का संकल्प करनेवाला) कर्ता, तीन–कर्म के पृथक्-पृथक् उपकरण (यंत्र), चार–कर्म की पृथक्-पृथक् चेष्टा (कर्म करने की भिन्न-भिन्न प्रणाली, उसमें दक्षता-अदक्षता), और पाँच–(सबका अतिक्रामक) ‘दैव’ (भाग्य, नियति, संयोग, जीवन में अनिश्चितता का अपरिहार्य तत्व—जो भी नाम दें)।]
प्रत्येक कर्ता हरगोविंद खुराना (1922-2011) की तरह कर्म का अधिष्ठान चुनने के लिए स्वतंत्र नहीं है। मुल्तान (पश्चिमी पंजाब) के एक गांव में पटवारी के घर जन्मे खुराना ने अपने अप्रतिम अध्यवसाय से पंजाब यूनिवर्सिटी से एम एस सी किया। भारत सरकार की फ़ेलोशिप पर विदेश गए, पी एच डी किया, भारत लौटे, यहाँ कोई काम नहीं मिला तो फिर वापस विदेश चले गए। वहाँ समुचित अधिष्ठान मिला तो 1968 में औषधि-विज्ञान में नोबल पुरस्कार (दो अन्य के साथ) के सहभागी बने।
जैसे अधिष्ठान, वैसे ही उपकरण। 1967 के अरब-इज़राइल युद्ध में इज़राइल ने मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की सम्मिलित शक्ति को छ: दिन में ध्वस्त ही नहीं किया, तीनों के अहम भूक्षेत्र पर क़ब्ज़ा भी कर लिया। अधिकांश लोगों की आशा के विपरीत। कारण यंत्र—अमेरिका से मिले एम 48 ए3 टैंक और स्काईहॉक लड़ाकू विमान। इनका पता न इन तीनों देशों को था, न दुनिया के अधिकांश लोगों को। यह आपूर्ति शीतयुद्ध की अनिवार्यता के कारण हुई थी। इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद तीसरे विश्वयुद्ध का बीजबिंदु न बन जाय, इस ख़तरे के मद्देनज़र रूस और अमेरिका ने सम्मिलित घोषणा की थी कि वे किसी पक्ष को हथियार की आपूर्ति नहीं करेंगे। किंतु बाद में गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों की मदद की आड़ में रूस का हस्तक्षेप शुरू हो गया था। इसके परिणामस्वरूप अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने इज़राइल को शस्त्र- आपूर्ति पर लगाए प्रतिबंध को हटाकर उपरोक्त टैकों और लड़ाकू विमानों की आपूर्ति कर दी थी। [इन्हीं तथ्यों की जानकारी के आधार पर युद्ध शुरू होते ही तिवारी जी ने कह दिया था, मिस्र, सीरिया और जॉर्डन मिलकर हारेंगे और जल्दी ही हारेंगे। लोगों ने इसे उनका पागलपन कहा था।]
छ: दिन के युद्ध में ढेर सारा भूक्षेत्र गँवाकर तीनों देश हार गये तो लोगों ने समझा, तिवारी जी ज्योतिषी हैं। तिवारी जी ने समझाया–मैं कोई ज्योतिषी वगैरह नहीं हूं भाई, बस अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का छात्र हूं और इत्तिफ़ाक़न प्राध्यापक भी। फिर तो यह घटना किंवदंती-जैसी बन गई। जनवरी 1972 में जब मैं गोरखपुर पहुँचा, तब तक कभी-कभी इसकी चर्चा कॉफ़ी हाउस (गोलघर) में उठ जाया करती थी।
इंद्रियाँ भी उपकरण का काम करती हैं। हमारी उम्र के अधिकांश लोगों के लिए सुई में तागा डालना चक्रव्यूह भेदने जैसा है। और बच्चों के लिए बायें हाथ का खेल (कभी हम भी इस काम के लिए बुलाए जाते थे और खेलना छोड़कर बेमन से आना पड़ता था)।
कर्म की चेष्टा। हर व्यक्ति हर काम में माहिर नहीं हो सकता। हम जैसे लोग लिखने को कुछ भी लिख लें, मल्ल युद्ध नहीं लड़ सकते, तलवार नहीं चला सकते। होने को अपवाद हो सकते हैं। हर एक की दक्षता उसकी अंतर्निहित प्रवृत्ति के अनुरूप होती है। आजकल फ़ेसबुक पर कुछ लोग ख़ूब तलवार भाँजते दिखाई पड़ते हैं। बिना मतलब, उकसाऊ बम बम। अपनी वॉल पर तो करते ही हैं, मौक़ा मिलते ही दूसरों की वॉल पर भी धावा बोल देते हैं। क्या पता, ये महज़ वाणीवीर हों और कुछ सामने आ ही जाए तो भाग खड़े होनेवालों में सबसे आगे नज़र आयें।
और दैव। भाग्य। सब कुछ होने के बावजूद असफल हो सकते हैं।
और कुछ भी न होने पर सफल हो सकते हैं। सामान्य अनुभव से सर्वगम्य है–कर्म और फल का सम्बंध अनिश्चित था, है और रहेगा।
तो उपाय क्या है?
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूत हिते रता:॥12:4॥
[जो इंद्रिय-समूह को अच्छी तरह वश में करके, सर्वत्र समत्व बुद्धि रखते हैं और सभी प्राणियों के कल्याण में संलग्न रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं।”]
यह सीधा उत्तर तो नहीं है। हो सकता है,सीधा और व्यावहारिक उत्तर गीताकार व्यास जी के पास भी न रहा हो।
आशय तो यही लगता है कि अपना कर्तव्य करते रहें। पूरी निष्ठा से करते रहें। कर्तव्य क्या है? जैविक कर्तव्य के अतिरिक्त भी मनुष्य होने के नाते कुछ कर्तव्य बनता है। सबके प्रति समभाव रखें और सभी प्राणियों के कल्याण में लगे रहें। यथासम्भव इंद्रियों पर नियंत्रण भी रखें। यही अपने वश में है। हो सकता है, नैया पार हो जाए।
बाक़ी भ्रतृहरि महाराज ने मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के अनुरूप उन्हें मोटे तौर पर चार श्रेणियों में बाँट ही दिया है—
एते सत्पुरुषा: परार्थघटका: स्वार्थान्परित्यज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृत: स्वार्थाविरोधे नये।
तेsमी मानुषराक्षस: परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे॥
[जो स्वार्थ का परित्यागकर परमार्थ में लगे रहते हैं, वे सत्पुरुष हैं। जो स्वार्थ का परित्याग किए बिना परमार्थ करते हैं, वे सामान्य पुरुष हैं। जो अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए दूसरों का अहित करते हैं, वे राक्षस-तुल्य हैं। और जो बिना कारण दूसरों का अहित करते हैं, उन्हें क्या कहा जाए, मैं नहीं जानता.]
इन चौथी श्रेणीवालों के सामने हाथ जोड़ने के अलावा कोई रास्ता है? तुलसी बाबा ने शुरू में ही इनकी वंदना कर लेने में भलाई देखी—
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
परहित हानि लाभ जिन केरें। उजरें हरष विषाद बसेरें।।
[अब मैं पूरी निष्ठा से दुष्टों की वंदना करता हूँ, जो बिना कारण, उनका हित करनेवालों का भी, अहित करने में लगे रहते हैं। दूसरों के काम की हानि में ही अपना लाभ देखते हैं। दूसरों के उजड़ने से ख़ुश हो जाते हैं और बसने से मायूस।]
बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना। दुनिया जैसी है, वैसी है। गीता का कर्मण्येवाधिकारस्ते…एक वरण, एक विकल्प हो सकता है। शायद एक बेहतर विकल्प। रुचि के कारण हो, मजबूरी के कारण हो, जीवन में सार्थकता-बोध प्राप्त करने के लिए हो, जैसे भी हो।
(-मित्रवर प्रोफ़ेसर अरुण कुमार सिंह की प्रेरणा से)
