कमलकांत त्रिपाठी : भाग-34_विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक
विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक
भाग-चौंतीस
[नोट—विषय जनमानस में विवादास्पद है। यथासंभव श्रम और निष्ठा से अर्जित तथ्यों में त्रुटि हो सकती है। साक्ष्य के साथ इंगित करें तो कृपा होगी।]
सावरकर के मन में भगत सिंह के प्रति और भगत सिंह के मन में सावरकर के प्रति असाधारण सम्मान भाव था। भगत सिंह लाहौर के द्वारकादास पुस्तकालय में सावरकर की अंग्रेजी में लिखी अंशकालीन जीवनी ‘Life of Barrister Savarkar’ पढ़कर बहुत प्रभावित हुए थे। (हंसराज रहबर, भगत सिंह एंड हिज़ थॉट, दिल्ली, मानक पब्लिकेशंस, 1990, पृ. 90)। लाहौर षड्यंत्र (सांडर्स हत्या) कांड (1928-31) में गिरफ़्तार हुए हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सभी सदस्यों के यहाँ इस पुस्तक की प्रतियाँ मिली थीं।
[इस पुस्तक का एक विचित्र इतिहास है। यह ‘चित्रगुप्त’ के छद्मनाम से लिखी गई थी। मई 1937 में जब धनजी शाह कूपर और बैरिस्टर जमुनादास मेहता की अंतरिम (अल्पमत) सरकार ने सावरकर को रत्नागिरि की नज़रबंदी से मुक्त किया तो 27 जून 1937 को ‘बम्बई सावरकर स्वागत समिति’ ने वहाँ उनका अभिनंदन-समारोह आयोजित किया था। उसमें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उपस्थित थे (?)। सावरकर की प्रशंसा के दौरान उन्होंने यह ख़ुलासा किया कि क़रीब बीस वर्ष पहले उन्होंने सावरकर की एक जीवनी लिखी थी। उन्होंने कहा, अब मैं उसमें क्या जोड़ सकता हूँ क्योंकि लंबी सज़ा के दौरान गहन चिंतन से उनकी बौद्धिक क्षमता और गहन हुई होगी। (बालाराव सावरकर, हिंदू महासभा पर्व, पृ. 23)। अंग्रेजी में लिखी गई यह जीवनी 1926 में मद्रास स्थित बी जी पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुई थी। इंग्लैंड के दिनों के सावरकर के क्रांतिकारी साथी वी वी एस अय्यर (1925 में असामयिक मृत्यु) अपनी मृत्यु के पूर्व मद्रास प्रेज़ीडेंसी में ही थे। या तो अय्यर ने इस पुस्तक के लेखन में राजगोपालाचारी की सहायता की होगी या अय्यर ने ख़ुद लिखी होगी और राजगोपालाचारी ने प्रकाशन में सहयोग दिया होगा। चूँकि पुस्तक सावरकर और उनके साथियों की भूमिगत क्रांतिकारी गतिविधियों से सम्बद्ध थी (जो उन दिनों राजद्रोह के दोषारोपण का सहज आधार बन सकती थी), इसे चित्रगुप्त के छद्मनाम से प्रकाशित किया गया। पुस्तक में सावरकर के भारत में बीते बचपन और युवावस्था सम्बंधी विवरण अस्पष्ट और अपर्याप्त हैं जब कि उनके लंदन प्रवास का विवरण विस्तार से दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि लंदन के उथल-पुथल भरे दिनों में उनके किसी साथी की पुस्तक की तैयारी में संलग्नता रही होगी। जुलाई 1927 के ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में मद्रास के बी. जी. पब्लिकेशंस द्वारा नव-प्रकाशित पुस्तक के बारे में सूचना छपी थी। एक रुपये आठ आने मूल्य की इस पुस्तक के सम्बंध में लिखा गया था—‘एक प्रसिद्ध देशभक्त के जीवन की दास्ताँ, एक घनिष्ठ मित्र की क़लम से, रोचक घटनाओं से लबरेज़, कि कैसे एक क्रांतिकारी दल के नेता के तौर पर उन्होंने भारत और इंग्लैंड में अभियान चलाया, कैसे वे गिरफ़्तार हुये और मार्सेई में जहाज की खिड़की से कूदकर कैसे उनका रोमांचक पलायन हुआ। रोचक अभिरुचि की पुस्तक और हमारे नये भारत के बारे में रोचक सबक।’]
अपनी जेल डायरी में भगत सिंह ने मराठा इतिहास पर लिखी सावरकर की पुस्तक ‘हिंदू पद पादशाही’ से कुल पांच उद्धरण नोट किए थे—
1. बलिदान तभी प्रिय लगता है जब तत्काल या दूरगामी किंतु यथोचित रूप से अनिवार्य सफलता दिखाता है। जो बलिदान अंतत: सफल न हो, आत्मघाती होता है, मराठा व्यूहरचना में उसका कोई स्थान नहीं था। (हिंदू पद पादशाही, पृ. 256)
2. (पहाड़ी इलाक़े से परिचित) मराठों से लड़ना वैसे ही था जैसे हवा से लड़ना, जैसे पानी पर वार करना (वही, पृ. 254)
3. हमारे समय के नैराश्य में इतिहास लिखना वैसे ही था जैसे दिलेर क्षमताओं और अवसरों को क्रियान्वित किए बिना, बहादुरी के कारनामों के गीत गाना। (वही, पृ. 244-45)
4. राजनीतिक पराधीनता से किसी भी समय मुक्त हुआ जा सकता है किंतु सांस्कृतिक वर्चस्व की बेड़ियाँ तोड़ना बेहद कठिन होता है। (वही, पृ. 242-43)
5. ‘धर्मांतरण से बेहतर है कट जाना’—यह तत्कालीन हिंदुओं के बीच एक जीवंत पुकार थी। किंतु संत रामदास उठे और बोले—‘नहीं, ऐसा नहीं है। न तो कटो, न ही हिंसा के सामने धर्म बदलो। हिंसक शक्तियों को समाप्त करो और पवित्रता के लक्ष्य की रक्षा के लिए प्राण दे दो।‘ (वही, 141-62)
{भगत सिंह, मलविंदर सिंह जीत (संपादक), जेल नोटबुक ऑफ़ शहीद भगत सिंह, यूनिस्टार बुक्स, 2016, पृ. 300}
15 नवम्बर 1926 को ‘मतवाला’ में प्रकाशित ‘विश्व-प्रेम’ शीर्षक लेख में भगत सिंह ने सावरकर के बारे में लिखा—‘वह नायक विश्वप्रेमी है जो किसी खूँख़्वार विप्लवी को संबोधित करने से नहीं डरता। सावरकर-सरीखा नायक विश्व-प्रेम की लहर में बहता हुआ, हरी दूब पर चलता हुआ, यह सोचकर रुक जाता है कि नरम घास उसके पैरों तले दब जायेगी।‘
भगत सिंह का यही लेख 22 नवंबर 1926 को मतवाला में दुबारा प्रकाशित हुआ।
भगत सिंह ने जब सावरकर की लिखी पुस्तक ‘Indian War of Independence 1857′ का गुप्त संस्करण भारत में प्रकाशित कराया, 2000 प्रतियों में से दो प्रतियाँ लेखकीय सम्मान के तौर पर सावरकर को रत्नागिरि में नज़रबंदी के दौरान भेज दीं। पुलिस की एक तलाशी में (जो होती ही रहती थी) सावरकर ने बहुत युक्ति से उन्हें बचाया था।
भगत सिंह ने लंदन में सावरकर और शहीद मदन लाल धींगरा के आत्मीय सम्बंधों पर बहुत मार्मिकता से लिखा है (जैसा उन्होंने सुना था–तथ्यों में थोड़ा हेरफेर हो सकता है)—
“स्वदेशी अभियान का असर इंग्लैंड भी पहुँचा और श्री सावरकर ने इंडिया हाउस नामक रिहाइशगाह स्थापित किया था (श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित, सावरकर जल्द ही वहाँ रहनेवाले क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक बन गये थे, श्यामजी के फ़्रांस चले जाने के बाद सावरकर ही उसका प्रबंध भी देखते थे)। मदन लाल भी उसके सदस्य थे। एक दिन श्री सावरकर और मदन लाल दूर तक टहलने गये। जान देने की परीक्षा के लिए सावरकर ने मदनलाल से हथेली ज़मीन पर रखने को कहा और उसमें एक सुई चुभो दी, लेकिन पंजाबी वीर ने उफ़ तक नहीं की। दोनों की आखों में आँसू थे। दोनों एक-दूसरे से गले मिले। ओह, कितना ख़ूबसूरत समय था वह! कितना शानदार! उन मनोभावों के बारे में हम क्या जानते हैं! कायर लोग, जो मृत्यु के ख़याल से ही डर जाते हैं, क्या जानेंगे कि कितने उच्च, कितने पवित्र और कितने श्रद्धेय होते हैं देश के लिए जान देनेवाले! अगले दिन से श्री धींगरा सावरकर के इंडिया हाउस न जाकर कर्ज़न वाइली की भारतीय विद्यार्थियों की बैठक में जाने लगे। यह देखकर इंडिया हाउस के लड़के बहुत उत्तेजित हुए, मदन लाल को गद्दार तक कहा। सावरकर ने यह कहकर उनका क्रोध शांत किया—‘उन्होंने हमारी रिहाइश चलाने के लिए मेहनत की है। उनकी इसी मेहनत के कारण हमारा अभियान चल रहा है, हमें उन्हें धन्यवाद देना चाहिये।‘ जुलाई 1909 में इम्पीरियल इंस्टीट्यूट के जहाँगीर हॉल में एक बैठक थी। सर कर्ज़न वाइली भी उसमें शामिल होने गये। वे दो लोगों से बात कर रहे थे, तभी धींगरा ने पिस्तौल चला दी। वाइली को हमेशा के लिए सुला दिया। कुछ संघर्ष के बाद धींगरा पकड़े गये। सब उन्हें अपशब्द कह रहे थे। उनके पिता ने पंजाब से तार भेजा कि वह ऐसे विद्रोही, राजद्रोही और ख़ूनी व्यक्ति को अपना बेटा नहीं मानते। भारतीयों की बड़ी बैठकें हुईँ। लंबे-लबे भाषण हुये। बड़े प्रस्ताव पारित हुये। सब निंदा-प्रस्ताव थे। किंतु ऐसे समय भी सावरकर जैसे नायक ने खुलकर उनकी पैरवी की। उन्होंने कहा, मामला अदालत में है और उन्हें दोषी नहीं कहा जा सकता। अंतत: जब प्रस्ताव के लिये मत देने का समय आया तो बैठक के संयोजक बिपिन चंद्र पाल (संयोजक वस्तुत: सर आग़ा ख़ान थे, यद्यपि बिपिन चंद्र पाल भी मंच पर मौजूद थे) ने जब पूछा, क्या प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित माना जाय तो सावरकर साहब उठ खड़े हुये और बोलना शुरू किया। उसी समय एक अंग्रेज ने उनके मुँह पर घूँसा मारा और कहा, ‘देखो, अँग्रेजी घूँसा कितना ज़ोरदार होता है!’ तभी एक हिंदुस्तानी युवा ने अंग्रेज के सर पर छड़ी जमा दी और कहा, “देखो, हिंदुस्तानी लाठी कैसे पड़ती है! शोर मच गया। बैठक बीच में ही समाप्त हो गई। प्रस्ताव पारित नहीं हो सका।“ {सत्यम् (संपादक) भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़, लखनऊ, राहुल फ़ाउंडेशन, 2006, पृ. 166-68}
23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दी गई। देश में जबर्दस्त जन-आक्रोश था, ख़ासकर इस ख़बर से कि उनका शव परिवारवालों को नहीं सौंपा गया और जल्दी में तिरस्कारपूर्वक जला दिया गया। जब गांधी जी कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन (26-31 मार्च 1931) में भाग लेने कराची रेलवे स्टेशन पर उतरे, एचएसआरए से जुड़ी नवजीवन भारत सभा ने उनके विरुद्ध उग्र प्रदर्शन का आयोजन किया था। काले फूलों और काले हारों से उनका स्वागत हुआ। जनता की निगाह में उन्होंने गाधी-इर्विन समझौता (4 मार्च 1931) करके भगत सिंह और उनके साथियों के देशप्रेम पर आघात किया था। सुभाष चंद्र बोस के सुझाव के अनुसार यदि गांधी जी समझौते की शर्त के रूप में तीनों क्रांतिकारियों की फाँसी से मुक्ति की माँग करते तो बहुत संभव है (लॉर्ड राम्ज़े मैक्डॉनलन की लेबर सरकार का इरविन पर इतना दबाव था कि) उन्हें मानना ही पड़ता, पर संभवत: उनका अहिंसा-प्रेम आड़े आ गया। इस समझौते के तहत वे कांग्रेस की ओर से अकेले दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने इंग्लैंड गये और हिंदू-मुस्लिम मुद्दे पर कोई समाधान संभव न हो पाने से ख़ाली हाथ लौट आये। तब तक इंग्लैंड में सरकार बदल गई थी और नये वाइसरॉय विलिंग्डन ने गांधी जी से मिलने तक से मना कर दिया। जब उन्होंने दुबारा सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और आंदोलन धीरे-धीरे बिखर गया।
दिसम्बर 1916 में हुआ तिलक और जिन्ना के बीच का लखनऊ समझौता ख़िलाफ़त+असहयोग की आंधी में उड़ चुका था। साइमन कमीशन के विरोध में संविधान का भारतीय प्रारूप तैयार करने के लिए मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक सर्वदलीय समिति गठित हुई (28-31 अगस्त 1928)। किंतु 22 दिसम्बर 1928 को उसकी कलकत्ता बैठक तक आते-आते मुस्लिम लीग ने उसके सामने एक अलंघ्य दीवार खड़ी कर दी। लीग की केंद्र के बजाय प्रांतों को अवशिष्ट शक्तियाँ देने तथा हिंदू-बहुल प्रांतो में आरक्षित मुस्लिम सीटों के बरअक्स, दस साल तक पंजाब तथा बंगाल के मुस्लिम-बहुल प्रांतों में जनसंख्या के अनुपात में ही मुस्लिम सीटें बनाये रखने के आग्रह के सामने नेहरू समिति का आशावाद ठंडा पड़ गया। साइमन कमीशन का विरोध तो ठीक था किंतु सर्वदलीय समिति (जिसमें कांग्रेस और लीग मुख्य और परस्पर विरोधी दल थे) ने भी कौन-सा तीर मार लिया? दरअसल मुस्लिम लीग शुरू से कांग्रेस द्वारा मुसलमानों सहित सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने का दावा पचा पाने में असमर्थ रही। देश के विभाजन का एक प्रमुख कारण यह भी बना। मुस्लिम लीग के नेता कहते थे, हिंदू महासभा वालों से बात करना आसान है, वे जो भी हों, वस्तुस्थिति समझते हैं, जब कि कांग्रेस दोनों समुदायों के प्रतिनिधित्व का दावा करती हुई हवाई और अव्यवहार्य हो जाती है। नतीज़ा यह रहा कि मुस्लिम लीग का रुख़ पिघलने के बजाय उत्तरोत्तर सख़्त और आक्रामक होता गया। कांग्रेस ने तीन गोलमेज़ सम्मेलनों में से केवल दूसरे में भाग लिया।कांग्रेस को अनुमत्य 20 प्रतिनिधियों के स्थान पर अकेले गांधी जी उसमें भाग लेने गये और साम्प्रदायिक मुद्दे पर ही मात खाकर लौट आये। किसी संवैधानिक सुधार का सवाल ही नहीं उठा। पूर्ण स्वराज की कौन कहे, डॅमीनियन स्टेटस भी विचारणीय तक नहीं समझा गया।
पूरे वाक़ये से खिन्न सुभाष चंद्र बोस ने टिप्पणी की—
“उन (गांधी जी) का भलापन, उनकी स्पष्टता, उनकी साफ़गोई, उनके विनम्र तौर-तरीक़े और विपक्षियों के प्रति उनका विश्वासपूर्ण रवैया—न केवल जॉन बुल को प्रभावित करने में नाकाम रहा, उसके सम्मुख अपनी कमज़ोरी भी अयाँ कर आया। अपने सारे पत्ते मेज़ पर रख देने की उनकी आदत भारत और भारतीयों के लिए तो ठीक थी, किंतु ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के बीच उनकी प्रतिष्ठा आहत हुई। वित्त और क़ानून के पेचीदा सवालों पर अपनी अनभिज्ञता दर्शाने की उनकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषी दार्शनिकों के बीच तो ठीक है, किंतु उसने ब्रिटिश जनता के बीच उनका सम्मान कम किया जो अपने नेताओं को उनकी क्षमता से अधिक देखने के आदी हैं….यदि महात्मा ने तानाशाह स्टालिन की भाषा बोली होती या….मुसोलिनी या फ्यूरेर हिटलर की, जॉन बुल समझ जाते और आदर से सिर झुका देते। जो भी हो, परंपरावादी राजनीतिज्ञ सोचने लगे थे: क्या धोती में लिपटा यह कृशकाय व्यक्ति इतना सशक्त है कि शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार उसके सामने झुके? भारत ऐसे व्यक्ति के अधीन है जो पादरी होने लायक है और इस कारण हमें यह समस्या थी। यदि यह मज़बूत आदमी दिल्ली या इंडिया हाउस में होता, सब कुछ ठीक रहता। राजनीतिक सौदेबाज़ी का रहस्य ख़ुद को क्षमता से अधिक मज़बूत दिखाने में होता है। भारतीय राजनीतिज्ञ, यदि वे ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के समक्ष सफल रहना चाहते हैं, तो उन्हें ऐसी बातें सीखनी होंगी जिन्हें वे नहीं जानते, और कई बातों को भूलना होगा।“ (बोस, द इंडियन स्ट्रगल, पृ. 259-60)
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दु:खांत पर जवाहर लाल नेहरू ने भी अपना रोष व्यक्त किया—“क्या इसीलिए हमारे लोगों ने एक साल तक इतनी बहादुरी दिखाई थी? क्या हमारे शब्दों और कृत्यों का यही अंत होना था? अक्सर दोहराये गये कांग्रेस के पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव का (जवाहर लाल की अध्यक्षता में ही लाहौर कांग्रेस, 1929 में यह प्रस्ताव पारित हुआ था)? 26 जनवरी (1930) की शपथ का? मार्च की उस रात लेटा हुआ मैं सोच रहा था, और मेरे हृदय में विराट शून्य था जैसे कुछ मूल्यवान खो गया हो, कभी न लौटने की उम्मीद के साथ।“ (जवाहर लाल नेहरू, नेहरू ऑन गांधी( सेलेक्शन ऑफ राइटिंग्स एंड स्पीचिज़) न्यूयार्क, जॉन डे कम्पनी, पृ.68)
नेहरू ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के वक़्त विशेषकर युक्त प्रांत के किसानों का हाल देखा या सुना रहा होगा। किसानों की पुख़्ता सुरक्षा के बिना नो रेंट, नो रेवेन्यू को इस आंदोलन का हिस्सा बनाकर रिआया किसानों (असामियों) पर अकल्पनीय कहर ढाये जाने का अवसर उपस्थित कर दिया गया। हमेशा के राजभक्त ताल्लुक़ेदार-ज़मींदार तो इस आंदोलन में हिस्सा लेने से रहे। तो उन्होंने सरकार को रेवेन्यू (मालगुज़ारी) दी किंतु उनकी रिआया असामी किसानों ने जब गांधी बाबा की बात मानकर लगान (रेंट) देने से मना कर दिया तो उसकी बलात् वसूली के लिए क्या-क्या किया गया, अवर्णनीय है। उनके ख़िलाफ़ हमेशा के शोषक ताल्लुक़ेदार-ज़मींदार तथा पुलिस और सरकारी अमला एक हो गये। ऐसे किसान खेत से तो बेदख़ल हुए ही, उनके घरेलू सामान, खेती के औज़ार, हल, बैल, बर्तन, भाँड़े तक नहीं छोड़े गये। उन्हें नंगा करके पीटा गया, फिर जेल में डाल दिया गया, उनकी औरतें और बच्चे भी नृशंस तरीक़े की पिटाई और उत्पीड़न के शिकार हुए। खेत छिन जाने और मज़दूरी कर सकने योग्य मर्द के जेल चले जाने पर औरतों-बच्चों पर क्या गुज़री, वे किस तरह दाने-दाने को मोहताज हो गये, कल्पना करना भी कठिन है। गांधी जी के हर जन आंदोलन की क़ीमत गाँव के असहाय, दरिद्र असामी किसानों और उनके परिवारों को किस तरह चुकानी पड़ी, इसका समुचित शोध अभी शेष है। ज्ञान पांडे ने सबाल्टर्न इतिहास के क्षेत्र में कुछ काम किया है किंतु वह विचारधारात्मक रंग में रँगा हुआ और प्रामाणिक अनुभव से शून्य है।
गांधी जी को सविनय अवज्ञा आंदोलन का दूसरा चरण शुरु करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं सूझा और पहले चरण के किसी उपचारात्मक उपाय के अभाव में उसे धीरे-धीरे बिखरकर बेअसर होना ही था। सविनय अवज्ञा आंदोलन मुसलमानों के सहयोग से लगभग वंचित रहा। 1932 के उत्तरार्द्ध तक आते-आते, इसका दूसरा चरण स्पष्ट पराजय की ओर उन्मुख हो गया और 1934 तक अपनी मौत मर गया। गाँधी जी कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर हरिजन उत्थान और अन्य रचनात्मक कार्यों तक सीमित रहने की घोषणा कर वर्धा आश्रम चले गये। किंतु क्या सचमुच ऐसा हुआ? ……………………………………
(क्रमश:)
