एस्ट्रो निशांत : सम्मान आपके कर्मों से आपको प्राप्त होगा

नमस्कार मित्रो

शंकराचार्य जी ने राम मंदिर में स्थापना को लेकर मुहूर्त से जुड़े कुछ शास्त्रीय विसंगति को चिन्हित किया।
जिसका विरोध भी हुआ और समर्थन भी।

Veerchhattisgarh

कही ये भी आया की वे ब्राह्मण है उनका अपमान करना अनुचित है।

अब हम थोड़ा विस्तार में चलते है।

एक विषय है जिसे हम भारतीय संस्कृति में वर्ण व्यवस्था कहते है।ये वर्ण व्यवस्था जन्म के द्वारा नही बल्कि कार्मिक है।

ये व्यवस्था सभी अपने अपने स्तर पर समझते है कोई खुद को ऊंचा कोई नीचा मानता।

इस व्यवस्था को हम कुछ अलग तरीके से समझने का प्रयत्न करते है।

इससे पहले हम अपने शरीर की बात करे

तो इसके मैं 5 हिस्से करता हु।

1.सिर
2. छाती
3.पेट
4.पैर एड़ी तक
5 एड़ी से पंजा तलवा

वही वर्ण 4 है
1.ब्राम्हन
2.क्षत्रिय
3.वैश्य
4.शुद्र

अब हम देखे

श्रेष्ठ कौन।

हमारा सिर हमारी देह में सबसे अधिक आवश्यक अंग है।
हम इसी अंग से बुद्धि के द्वारा उच्च या नीच माने जाते।

सिर में भाल,आंख ,कान, नाक,ज्विहा है।

यदि सिर अर्थात बुद्धि श्रेष्ठ है तब हम आंखो से उत्तम ज्ञान को और संसार को देखते है ,समझते है।
कान से हम सुनकर जीवन में अच्छे कार्य का अनुसरण करते।
नाक से हम प्राणव्यु लेते है और अपनी इज्जत को ऊंचा रखते।
जबान से हम अपनी बुद्धि अनुसार विषय की व्याख्या करते है।

सिर अर्थात बुद्धि ही श्रेष्ठ है जिसके द्वारा पूरा देह संचालित होता।

इसीलिए हम जन्म के बाद शिक्षा लेते और आगे के कर्मों का निष्पादन करते।

अगर शिक्षा सही नही या अधूरी मिले तो व्यक्ति गलत दिशा में जा सकता है।

इस तरह ये सिद्ध हुआ की शरीर में सिर का और वर्ण में ब्राम्हण का सबसे अहम प्रभाव है।

वही व्यक्ति को आगे का मार्ग दिखाता है।

क्षत्रिय जिस बाहुबल का प्रयोग करता है वह बौद्धिक देन ही है।

बड़े बड़े राक्षस या देव ,मनुष्य तप या बल से बड़े बड़े राज्य पाते है या जन हित करते उसके पीछे उसकी बुद्धि अर्थात ब्राम्हण गुरु का ही निर्देश होता है।

पाए हुए राज्य या देश में वैश्य उत्तम राजा जो गुरु कृपा का पात्र है में अपना व्यापार करते है ।

देश की अर्थ व्यवस्था को सुदृंन करते है।

वही शुद्र उसी तरह परम उपयोगी है जैसे पूरी देह की गतिशीलता सिर के निर्देश से पैर के द्वारा होती है।

यही व्यवस्था है जो एक दूसरे से अभिन्न है।

किसी को छोटा बड़ा कहना अनुचित है।

अब 5वें अंग की बात करते है।

जब पैर उत्तम मार्ग पर चलता है

सिर और भुजाओं के सही निर्देश को मानता है।

तब वह पूजनीय हो जाता है।

किंतु

पैर का निचला हिस्सा पूजित है।

उसमे दोष नही।

इसी लिए भारतीय सभ्यता में पैर छूकर आशीर्वाद लिया जाता है

पैर दबाकर आशीर्वाद मिलता है।
क्योंकि सबसे अधिक मेहनत पैरो को पड़ती है ।

यही पंजे पैर के धोकर चरणामृत लिया जाता।

कोई सिर नही धोता।

क्योंकि

भगवान राम ने रावण को कहा कि तुम बहुत ज्ञानी हो परन्तु अहंकार और पाप वृत्ति ने तुम्हे पथभ्रष्ट कर दिया यही तुम्हारी दुर्गति का कारण है।

भक्त अनपढ़ या मूर्ख हो सकता है लेकिन पापी नही होगा तभी भक्त होगा।

ज्ञानी अपनी बुद्धि का प्रयोग अपनी क्षमता के आधार पर करता है वो ज्ञानी हो सकता है लेकिन जरूरी नहीं की उसके निर्णय सदैव विश्व या स्वहित में ही हो।

इसीलिए सिर श्रेष्ठ है

किंतु जो अपने बाकी अंगों को धर्मोचित निर्देश देता है

उसी के पैर पूजे जाते है वही पूजनीय होता है।

इसीलिए ब्राम्हण से क्षत्रिय,क्षत्रिय से वैश्य, वैश्य से शुद्र और शुद्र से पूजनीय होने की इसी व्यवस्था को भगवद प्राप्ति से जोड़कर देखना चाहिए।

केवल शास्त्र पढ़ लेना ,केवल बलवान हो जाना, केवल व्यापार कौशल हो जाना, केवल मेहनती हो जाना आपको सम्मान नही दिला सकता।

सम्मान आपके कर्मों से आपको प्राप्त होगा।

जैसे बड़े बड़े संतो को श्री राम कृपा दुर्लभ है।
वही अज्ञानी भक्त के आगे राम विवश होते है।

आशा है इसे बेहतर तरीके से हम समझ पाएंगे।

धन्यवाद।

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