योगी अनुराग : पूर्वसंध्या
समग्र संस्कृत साहित्य ने “अयोध्या” शब्द को आकारान्त-स्त्रीलिङ्ग शब्द की भांति प्रयोजा है, यानी कि ऐसा शब्द जो “आ” की ध्वनि से अंत हो और स्त्रीलिंग हो।
अयोध्या जी का पूर्ववर्ती मूल शब्द “अयोध्य” है। ये बना है “अ” और “योध्य” शब्दों से। यहाँ “अ” नकार भाव के लिए है और “योध्य” शब्द युद्ध-संज्ञा का भाववाचक है, इसका अर्थ होता है : वो जिससे युद्ध न किया जा सके।
अयोध्य यानी कि वो नगर, जिससे युद्ध करना सम्भव न हो। एक नगर जो अयोध्य हो, उसका स्त्रीवाचक शब्द “अयोध्या” होगा। साथ ही, जहाँ युद्ध न होगा, वहाँ किसी का वध भी न होगा, अतः राज्य का नाम अवध हुआ।
समूचे महाभारत में कई बार, कई योद्धाओं के सम्पूर्ण आर्यवर्त दिग्विजय का उल्लेख है। दिग्विजय यात्रा के दौरान उन योद्धाओं के अयोध्या भ्रमण का भी उल्लेख है, किन्तु कहीं कोई उल्लेख अयोध्या जी को विजित् करने का नहीं है।
— ऐसी हैं, अवध राज्य की राजधानी अयोध्या जी!
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हे रामजन्मभूमि! प्राण-प्रतिष्ठा-महोत्सव पर क्या लिख दें, हम रामभक्त? एक लेख तो क्या, इस अवसर की प्रसन्नता को व्यक्त करने हेतु एक आलेख तो क्या, एक ग्रन्थ भी नहीं पर्याप्त नहीं है। प्रिय रामभक्त बंधुओ! प्राण-प्रतिष्ठा-महोत्सव भौतिक रूप से भले एक स्थान पर हो रहा हो, किंतु भाव-जगत् में इसका आयोजन सौ करोड़ से अधिक स्थानों पर है।
महाराज इक्ष्वाकु, मांधाता, दिलीप, सगर, अज, दशरथ और श्रीराम जैसे राजाओं ने इस नगर की आधारभूमि में धंसे पत्थरों को अपनी कुदालों से कुछ इस तराशा है, कि संसार के हर सनातनी के हृदय में एक अयोध्या जी निर्मित हुई हैं। ये कहना भी अतिशयोक्ति न होगी कि राष्ट्र में सौ करोड़ अयोध्या जी हैं, हर सनातनी का हृदय अयोध्या जी हैं।
वैसा इसलिए भी हो सका, चूँकि अयोध्या जी अपने आप में मात्र एक नगर नहीं, अपितु एक पवित्र नदी के तट पर एक पवित्र ग्रंथ आधारित व्यवस्था से चलायमान एक पवित्र नागर सभ्यता का असाधारण संयोजन हैं।
आप दुनिया के किसी शहर का इतिहास उठा कर देख लीजिए, तीनों चीज़ें किसी शहर के पास नहीं होंगी। यदि उस शहर का ग्रंथ होगा, तो उसके पास “नदी” न होगी। यदि नदी होगी तो सिर्फ शहर बसा होगा, कोई ग्रंथ उसके पास अब न होगा। और यदि ग्रंथ और नदी, दोनों होंगी, तो अब वो शहर ख़ाक में मिल गया होगा। उठा कर देखिए इतिहास। समूचे संसार में, केवल और केवल अयोध्या जी हैं जिसका ग्रंथ, नदी और सभ्यता शहर, अब तलक सुरक्षित है!
एक नदी जोकि सभ्यता की स्थापना का औचित्य बनती है, एक ग्रंथ जो कि सभ्यता में श्रद्धा का समावेश करता है और एक नागर व्यवस्था जोकि परंपराओं का निर्वहन करते हुए प्रगति करती है। तो साहिबान, हम सनातनियों ने समग्र संसार को ये दिखाया कि हमारे पास अयोध्या जी का औचित्य बचा है, परंपरा बची है और अथाह श्रद्धा भी।
हम हिन्दू, पांच सौ साल पहले अयोध्या जी में मंदिर निर्माण कर रहे थे। हम हिन्दू, आज पांच सौ साल बाद भी मंदिर निर्माण ही कर रहे हैं। ये कोई समझौता नहीं, बल्कि हमारी पूँजी है, हमारा स्वप्न है जोकि आज पूर्ण हो रहा है।
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अद्य, प्रत्येक सनातनी का घर अपने आप में वैसा पर्णकुटीर बन गया है, जिसमें भरत ने प्रतीक्षाओं की चौदस बिताई थी। वनवास की अवधि में बस एक दिन का समय बचा है। किसी भी क्षण राम आते होंगे। भरत शंकित थे, अवधि बीत जाने पर अग्निस्नान करने हेतु सज्ज थे, किंतु प्रभु के आगमन का सन्देशा लेकर हनुमान प्रकटे।
ठीक वैसे ही, कलिकाल में, संदेशवाहक की भूमिका का निर्वहन पीले चावलों ने बख़ूबी किया है। प्रभु आ रहे हैं, बस आते ही होंगे, आ ही गए के संदेश हर ओर गुंजायमान हैं!
आज पौष शुक्ल द्वादशी है और सदियों पश्चात्, अंततोगत्वा, प्रभु श्रीराम अपने आगमन के मार्ग पर प्रथम चरण धर चुके हैं। हम सब श्री भरत जितने भाग्यशाली कहाँ कि प्रभु के निज नगर अयोध्या जी में उपस्थित हो सकें, बल्कि हम तो सुदूर किसी जंगल में जटायु की भांति आहत होकर श्रीराम की प्रतीक्षा कर रह रहे थे।
मेरे राम, हम सब तो आपके जटायु थे! बाबा तुलसी ने हमारे ही लिए लिक्खा था : “आगें परा गीधपति देखा / सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा!”
— अर्थात् प्रभु ने अपने मार्ग में आगे पड़े विशालकाय पंछी को देखा, जोकि श्रीराम की चरण रेखाओं का चिंतन कर रहा था!
सो, मेरे राम! हम आपकी प्रतीक्षा में, दंडकारण्य की किसी पगडण्डी पर, अपनी आस्था-पाँखों को खो चुके जटायु थे। और हमारे पास आपके चरण-तलवों की लालिम-श्वेतिमा के सुमिरन के अतिरिक्त कुछ था ही नहीं।
गौर से देखा जावै, तो पीठ मोड़कर दौड़ जाने वालों के तलवे ही देखने वाले के नेत्रों का केंद्र बनते हैं। सो, वनगमन के प्रसंग में श्रीराम के तलवे ही अयोध्यावासियों के चंद्रमा बने होंगे, प्रतिपल दूर दूर और सुदूर होते जा रहे तलवे!
हमने तो श्रीराम का वनगमन नहीं देखा था, जटायु ने भी प्रभु का वनगमन नहीं देखा था। किन्तु फिर भी, सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा? श्रीराम की चरण-रेखाओं का चिंतन? भला, श्री जटायु ने तो कभी प्रभु की छवि देखी नहीं थी, वैसी स्थिति में उन्हें चरण-रेखाओं के सुमिरन का सद्-विचार कहाँ से प्राप्त हुआ?
— इस सुचिंतित प्रश्नावली का समाधान, देवी सीता की हरण प्रसंग में जटायु से हुई एक लघु पीड़ादायक भेंट की सूक्ष्म अन्वेषणा से प्राप्त होता है। हमारी पीढ़ी को तो श्रीराम के गमन की अंतिम छवि का कोई अवसर नहीं मिला है, किन्तु देवी सीता के पास अवश्य इस दृश्य की धरोहर थी। इसपर कोई बहुत गहन विचार नहीं करना होगा, कि देवी सीता के अपहरण से पूर्व, उनके नेत्रों में श्रीराम की अंतिम छवि क्या थी?
ये छवि थी एक वल्कल-वस्त्रधारी राजपुत्र की, जोकि धनुष-बाण साधे मृग के पीछे दौड़ पड़ा!
इस छवि का उल्लेख अशोक वाटिका में हुई देवी सीता और श्री हनुमान की भेंट के प्रसंग में हुआ है : “जेहि विधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम / सो छवि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम!” — इसी वाटिका प्रसंग में, बाबा तुलसी आगे कहते हैं : “निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन / परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन!”
— यानी कि देवी सीता अपने तलवों को देखती रहती हैं और प्रभु की अंतिम छवि का स्मरण करती रहती हैं!
ठीक इसी छवि का वर्णन वे अपने रुदन “राम राम हा राम पुकारी” में करती हैं, जिसे सुनकर जटायु आते हैं और रावण से संघर्ष में अपने पंखों को गवां कर प्रभु की प्रतीक्षा में पड़े हैं। देवी सीता के रुदन से ही वे प्रभु के तलवों का महत्त्व जान सके। उन्होंने बिना श्रीराम को देखे, उन्हें अपना तमाम सुमिरन समर्पित कर दिया। और तब, श्रीराम आए!
श्रीराम ठीक वैसे ही आए, जैसे आज हिंदुओं की सदियों से चली आ रही आस्था-पांख कटने की पीड़ा का निवारण करने आए हैं। प्रभु की बहुत बहुत कृपा कि उन्होंने अपने उपासकों की तमाम परीक्षाएं लेने के उपरान्त, निज आगमन को स्वप्रशस्त किया।
सो, अब जटायु की ही भांति प्रभु के आगमन से ही हमारी तमाम प्रतीक्षाओं का अंतिम संस्कार हो सकेगा।
जय जय श्रीराम।