देवांशु झा : पिया तो से नैना लागे रे…
लताजी की मृत्यु के बाद हरिहरन ने कहा था कि नौ रसों की ध्वनियां लता के कंठ में थीं। मैं कोई गायक, संगीत मर्मज्ञ नहीं हूॅं परन्तु यही बात बरसों से कहता आ रहा हूॅं कि गीत को उस तरह से पकड़ना, थामना और उतार देना किसी और के बस का नहीं था। यह जो गीत है–उसमें विविध रस हैं। उन रसों को वह पूर्णता के साथ ध्वनित करती हैं। दूसरे अंतरे के बाद जब वह आलाप लेती हैं तो लगता है जैसे कोई अपनी प्रिय प्रतिमा को जल में उतार रहा हो–कि अब यह नहीं मिलेगी!
गीत जिस नदी के तट पर गाया गया था वह तट ही नहीं रहा। सबकुछ तो उस नदी का हो गया, जिसकी तरंगें हैं, प्रवाह हैं।तट कहां गया?? वह शब्द को कैसे पकड़ती थामती और छोड़ देती हैं–यह ध्यातव्य है। जब वह फेड आउट करती हैं अपनी आवाज, तब वह आवाज़ हमारे कानों में, मन में टिकी रह जाती है। उस आवाज की प्रतिध्वनियां कभी शांत नहीं पड़ीं। जैसे कविता शब्द के बीच का अनकहा साहित्य है। वैसे ही उनका गायन सबसे अधिक बार सुना किन्तु अनछुआ अनसुना स्वर है। उस अनसुने को फिर-फिर सुन लिए जाने अथवा सुने जाने की प्रतीक्षा कभी पूरी नहीं होती। एक बार फिर सुनूं कि कुछ अनसुना रह जाय!
लता बाई अपने स्वर की प्रभा से बांधे रखती हैं किन्तु उनका स्वर उनकी विस्मयकारी आवाज के खोल से मुक्त है। मैं लता पर क्यों बार-बार लौटता हूॅं। इसे समझाना बड़ा कठिन है। संभवतः इसलिए कि वह शुद्ध हैं। शुद्ध स्वर! शुद्ध उच्चारण! निर्मल प्रवाह! कोई प्रलाप नहीं! बस आलाप और गायन! भाव तो उनके गायन में यूं आते हैं जैसे चंद्रमा से चमकीली निर्मलता आती है। जैसे तारों से बिन्दु-बिन्दु विस्मय की विभा आती है। जैसे सरोवर से सौन्दर्य आता है। उनके सैकड़ों गानों के छोटे-छोटे आलाप इतने प्रभावी और मन को मथने वाले हैं कि मैं उनके सामने किसी और सुगम संगीत के गायक को रख ही नहीं पाता। उन्हें ईश्वर ने अपूर्व स्वर दिया था। उतना पवित्र स्वर युगों में किसी को मिलता है। संभवतः आज तक किसी को नहीं मिला। किसी पार्श्वगायक को तो कदापि नहीं मिला। मैं यह गाना कमेंट बॉक्स में लगा रहा। आप ने सुना होगा। एक बार फिर से सुनिए। धैर्य से सुनिए।