वासुदेव बलवंत फड़के.. स्वतंत्रता ऐसे मिली

बंकिमचंद्र की किताब “आनंदमठ” को फिरंगी बार बार प्रतिबंधित करते थे और उन्हें पाँच बार इसे सुधार कर छपवाना पड़ा। ऐसा हो रहा था वासुदेव बलवंत फडके की वजह से। बंकिमचन्द्र की कहानी भले सन्यासी विद्रोह की थी, मगर घटनाएँ और पात्र का जीवन एक ऐसे व्यक्ति पर आधारित था, जिसे भारत के सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम का पितामह माना जाता है।

वासुदेव फडके (4 नवम्बर 1845 – 17 फ़रवरी 1883) बॉम्बे प्रेसीडेंसी के सबसे शुरूआती ग्रेजुएट्स में से एक थे। 1860 के दशक में इन्होने लक्ष्मण नरहर इन्दापुरकर और वामन प्रभाकर भवे के साथ मिलकर पूना नेटिव इंस्टीट्यूशन (पीएनआई) की स्थापना की जो बाद में महाराष्ट्र एजुकेशन सोसाइटी बना।

इसी के जरिये पुणे के भवे स्कूल की स्थापना हुई थी और आज एमईएस महाराष्ट्र में 77 संस्थाएं चलाती है। इतने शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के जिम्मेदार, भारत के ये शुरुआती ग्रेजुएट किसी दौर में हाई स्कूल की पढ़ाई अधूरी छोड़कर निकल चुके थे।
करीब 15 वर्ष (1860-75) वासुदेव फडके ब्रिटिश सरकार में क्लर्क की नौकरी कर रहे थे और इस दौरान वो क्रांतिवीर साल्वे तथा महादेव गोविन्द रानाडे जैसे नेताओं के संपर्क में रहे। इसका नतीजा ये हुआ कि आर्थिक राष्ट्रवाद से उनका परिचय हुआ और वो फिरंगियों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ़ हो गये।
आखिर 1875 में जब बड़ोदा के गायकवाड़ शासकों को फिरंगियों ने हटा दिया तो इनका गुस्सा फूटा। जब पढ़े लिखे वर्ग से उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिला तो उन्होंने रामोसी, कोली, भील और डांगर समुदायों से दल जुटाया और फिरंगियों का सशस्त्र विरोध करने की ठानी।

पैसे के लिए सरकारी इनकम टैक्स की रकम लूट लेने पर उन पर इनाम घोषित हुआ तो बदले में वासुदेव फडके ने बॉम्बे के गवर्नर पर अपनी ओर से इनाम घोषित कर दिया! इस वक्त तक रामोसियों के सरदार नाइक के मारे जाने की वजह से उनके लोग कम होने लगे थे। लिहाजा उन्होंने रोहिल्ला लोगों की भर्ती शुरू की।
पन्ढारपुर जाने के रास्ते में एक मंदिर के पास उन्हें भीषण लड़ाई के बाद 20 जुलाई 1879 को गिरफ्तार किया जा सका मगर उनपर मुकदमा चल ही रहा था कि एक रात (13 फ़रवरी 1883 को) जेल का दरवाजा उखाड़कर वो भाग निकले।
उन्हें जल्दी ही दोबारा पकड़ लिया गया। जेल में आमरण अनशन करते हुए 17 फ़रवरी 1883 को उन्होंने हमेशा के लिए आंखें मूँद ली। ये आमरण अनशन गाँधी जी के भारत लौटने से कुछ दशक पहले हुआ था। हो सकता है इस वजह से किताबी इतिहास वासुदेव फडके का नाम नहीं लेता।

क्योंकि फिर अनशन को विरोध प्रदर्शन के तरीके की तरह इस्तेमाल करने या बौद्धिक विकास में सशस्त्र क्रांतिकारियों के योगदान जैसी बातें बतानी होंगी, जो शायद स्थापित कथानक को तोड़ देगा।

-साभार

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