पंकज कुमार झा : कुंवे में ही भांग घुला है बिनोद।
हर व्यक्ति और समाज को राजनीति करने का अधिकार है। राजनीति का यह खेल ही अधिकाधिक शक्ति प्राप्त करने का है। लोकतंत्र की सीमा यही है कि जिसके पक्ष में गोलबंदी अधिक होगी, वह समाज, व्यक्ति, दल, जाति या लिंग शक्तिशाली होगा। इस दृष्टि से अगर कोई ओबीसी जैसा समीकरण भी सामने है, तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं। किंतु..
किंतु जहां तक तथ्य का सवाल है तो शायद ही असहमत होंगे आप कि ओबीसी का ऊपरी परत जो है यादव, कुर्मी, साहू आदि समाज … यह आज देश में सबसे अधिक मजबूत, सबसे अधिक ताकतवर और राजनीति में सबसे अधिक भागीदारी वाला है। जिस राज्य में इनमें से जो जाति अधिक संख्या में है, ताकतवर है, वह सामंत है। देश की राजनीति की धुरी है ये जातियां।
हां… यह अवश्य है कि इसी समूह के अंर्तगत जो छोटी-छोटी संख्या वाली जातियां हैं, जिन्हें हम पौनी-पसारी आदि के रूप में जानते हैं, उनके हिस्से की धूप भी ओबीसी की ऊपरी जातियों के हिस्से में चला जाता है। ये छोटी-छोटी संख्या वाली वही जातियां हैं जिनके लिए मोदीजी ने अभी विश्वकर्मा योजना प्रारंभ की है। पहली बार इस वर्ग की चिंता राजनीति में की गई है।
अगर जातिगत गोलबंदी का नाम ही राजनीति है तो यही सही। फिर ऐसी ही इंजीनियरिंग करने की आवश्यकता है जिसमें कम संख्या वाली जातियों का भी समूह बने जो अपना हित-अहित स्वयं सोच-समझ सके। अब अवसरवादियों के हाथ से बागडोर छीन कर अधिक जरूरतमंदों तक राजनीति पहुचानी होगी।
ठीक कह रहा हूं न?