योगी अनुराग : विश्व संस्कृत दिवस (श्रावण पूर्णिमा)

रक्षाबंधन के ही रोज़, एक और दिवस होता है!

और वो है : “विश्व संस्कृत दिवस”।

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वही संस्कृत, जो ब्राह्मी लिपि की एक सारगर्भित भाषा है!

वही संस्कृत, जो व्यास-वाल्मीकि-कालिदास की त्रयी द्वारा सेवित है!

वही संस्कृत, जो पाणिनि-कात्यायन-पतंजलि जैसे प्रेमियों की यशस्वी प्रेमिका है!

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वही देववाणी संस्कृत, जो दो करोड़ शब्दों की समृद्ध भाषा है, अपने निकटतम प्रतिद्वंदी से कई गुणा आगे!

आज का दिवस उसी संस्कृत का विश्वस्तरीय प्रतीक दिवस है।

विश्वस्तर पर संस्कृत का “स्टार” अगर किसी को कहा जाए तो निश्चित रूप से वे “पाणिनि” होंगे।

“अ मंथली ऑफ़ इंडोलॉजिकल बाइब्लियोग्राफ़ी” के अप्रैल उन्नीस सौ तैंतीस के अंक में “पाणिनि” को “फ़र्स्ट सॉफ़्टवेयर मैन विदआउट हार्डवेयर” कह कर संबोधित किया गया था। इस लेख का मुख्य शीर्षक था : “संस्कृत सॉफ़्टवेयर फ़ॉर फ़्यूचर हार्डवेयर”।

“पाणिनि” ने संस्कृत व्याकरण पर एक ग्रंथ लिखा, अष्टाध्यायी नाम से। उस ग्रंथ के श्लोक “उपजाति” छंद से आद्यांत निबद्ध हैं।

उनके बाद इस छंद का प्रयोग केवल और केवल शृंगार रस के आलम्बन उदात्तनायक-नायिकाओं के रूप सौंदर्य व वसंत आदि ऋतुओं के वर्णन में हुआ है।

“पाणिनि” की संस्कृत आजकल “डेड लैंग्विज” का ख़िताब पा चुकी एक मृतभाषा न थी। बल्कि उनकी संस्कृत तो बच्चन की मधुशाला की भाँति “षोडशवर्षी” थी।

ये था “पाणिनि” की संस्कृत का रस-रंग। ठीक यही बात, “सुवृत्ततिलक” ग्रंथ में क्षेमेन्द्र कहते भी हैं।

भाषाओं के आधुनिकीकरण में विभिन्न ख़िताब पा चुके भाषाविज्ञानियों ने जो लिखा, वो करीब चौबीस सौ साल पहले ही “पाणिनि” लिख कर जा चुके हैं।

मैक्समूलर ने लिखा है : “अंग्रेज़ी का ऐसा कोई वाक्य नहीं, जिसके शब्दों और भावों का संबंध पाणिनि की एक सौ इक्कीस मौलिक संकल्पनाओं से न निकाला जा सके।”

पाणिनि एक अलग ही विषय हैं, लगता है मैं संस्कृत विषय को छोड़कर उनकी ओर निकल आया हूँ। उनके बारे में अभी इतना ही, अधिक फिर कभी पृथक् से लिखूँगा।

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संस्कृत की वर्णमाला सर्वाधिक समृद्ध है। इसमें वर्ण, स्वर, व्यंजन आदि द्वितीय स्तर पर आते हैं, अव्वल स्तर पर हैं ध्वनियाँ। ये “ध्वनियों” पर निवास करने वाली भाषा है।

संस्कृत में कुल एक सौ आठ ध्वनियाँ हैं, और उनके आधार हैं : “सूर्य रश्मि” व “अष्टवसु”।

सैद्धांतिक रूप से, सूर्य का एक चौथाई भाग नौ रश्मियों को उत्सर्जित करता है। इस प्रकार समग्र सूर्य से कुल छत्तीस रश्मियाँ प्रकट होती हैं।

ये छत्तीस सूर्य-रश्मियाँ ही संस्कृत के छत्तीस स्वर बने।

अब ये रश्मियाँ पृथ्वी पर पहुँचीं और “अष्टवसुओं” से गुंठित होकर इन्होंने कुल बहत्तर ध्वनियों का निर्माण किया। (नौ रश्मि x आठ वसु = बहत्तर ध्वनियाँ)

इस प्रकार संस्कृत के बहत्तर व्यंजन बने। छत्तीस स्वर और बहत्तर व्यंजनों ने मिलकर ही संस्कृत की एक सौ आठ ध्वनीय वर्णमाला को निर्मित किया।

शब्दसंख्या पर बात करें तो संस्कृत में संस्कृत में सत्रह सौ धातुएं, सत्तर प्रत्यय और अस्सी उपसर्ग हैं। इन्हीं के गठजोड़, समास और शब्दरूप से संस्कृत शब्दकोश का निर्माण होता है।

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संस्कृत की विशेषताओं पर वार्ता करें तो कुल चार ऐसी विशेषताएँ हैं, जो इसे सम्पूर्ण विश्व की भाषाओं से भिन्न बनाती हैं।

अव्वल है, विसर्ग एवं अनुस्वार।

क्या लगता है आपको? कि हर शब्द के पीछे अनुस्वार लगा देने से वो संस्कृत शब्द बन गया? जैसे – जलं, भवनं व वचनं।

या कि विसर्ग लगा देने से, जैसे कि – बालक:, शंकर: व ईश्वर:।

कुछ कुछ सटीक भी है आमजनमानस का मत। किंतु शत प्रतिशत सटीक नहीं। विसर्ग और अनुस्वार से वस्तु के लिंग का ज्ञान मिलता है। विसर्ग बहुधा उन शब्दों के पश्चात् होता है जो पुल्लिंग होते हैं, और अनुस्वार उनके लिए जो नपुंसकलिंग होते हैं।

संस्कृत की दूसरी विशेषता है, शब्दरूप निर्माण।

प्रत्येक शब्द एक, द्वि व बहुवचन एवं विभिन्न विभक्तियों के उपचार से गुज़रते हुए, अपने पच्चीस रूपों को प्राप्त होता है।

सहज प्रश्न है – पच्चीस ही क्यों?

क्योंकि सांख्य दर्शन के देह में पच्चीस तत्व होते हैं :
आत्मा,
मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार नामक चार अंत:करण।
नासिका-जिह्वा-नेत्र-त्वचा-कर्ण नाम्नी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।
पाद-हस्त-उपस्थ-पायु-वाक् नामक पाँच कर्मेन्द्रियाँ।
गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्द नामक पाँच तन्मात्रायें।
एवं पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु-आकाश पाँच तत्व।

संस्कृत के पच्चीस रूप ही सांख्य दर्शन के तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इन्हीं के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है।

संस्कृत की तीसरी विशेषता है, द्विवचन। ये गुण तब अत्यधिक लाभप्रद प्रतीत होता है, जब कहीं किसी भीड़ में से किसी युगल को संबोधित करना हो। ऐसी स्थिति में इस गुण का कोई तोड़ किसी भाषा में उपलब्ध नहीं।

संस्कृत की चौथी विशेषता है, संधि। इससे दो शब्द निकट आए हैं, और उनके अंतिम-प्रथम स्वर/ध्वनि में योग होता है। इस क्रिया से समय का लाभ होता है।

एक बेहद प्रसिद्ध उक्ति भी है इस भाषा में : “यदि एक मात्रा का भी लाभ, किसी व्याकरण नियम के कारण, हो जाए, इस स्थिति में विद्वतजन इतना उत्सव मनाते हैं, मानो उनके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ हो।

उक्त सभी चार विशेषताओं के यौगिक चिकित्सकीय पक्ष भी हैं। जैसे कि,

विसर्ग के उच्चारण से “कपालभाति” प्राणायाम होता है और अनुस्वार से “भ्रामरी”!

पच्चीस रूपों का उच्चारण करने से पच्चीस तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को सहज प्राप्य होती है!

एकवचन शब्द के उच्चारण से मूलबंध, द्विवचन से उड्डियान बंध और बहुवचन से जालंधर बंध लगता है, ये तीनों ही उच्च स्तर की यौगिक क्रियाएँ हैं।

संधि के उच्चारण में जिह्वा को कुछ अधिक प्रयत्न करना पड़ता है, जो एक्यूप्रेशर पद्धति की एक क्रिया है।

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ऐसी विशेषताओं और वैज्ञानिकता से युक्त भाषा के यशस्वी पुत्र बनें हैं, ऐसी कामना के साथ एक बार पुनश्च विश्व संस्कृत दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ आप सबको।

इति नमस्कारान्ते।



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योगी अनुराग : चंद्रयान “असूर्यम्पश्या” http://veerchhattisgarh.in/?p=14781
एक शब्द है : “असूर्यम्पश्या”. “सूर्य” और “पश्य” शब्दों से मिलकर, नकारात्मक अव्यय “अ” का उपसर्ग लिए एक शब्द, जिसका अर्थ एक ऐसी व्याप्ति के रूप में है, जिसे कभी सूर्य ने भी न देखा हो. प्राचीन काल में, कन्याओं के लिए “असूर्यम्पश्या” शब्द का प्रयोग बड़ा सम्माननीय माना जाता था. उनके कौमार्य का प्रतीक जैसे!

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