IAS कृष्ण कांत पाठक : सारस्वत वीणा का असाध्य मन
“सारस्वत वीणा का असाध्य मन”
परंपरा कहती है-
यमुना भक्ति है, गंगा मुक्ति है।
जो कृष्ण से जुड़ी, मुक्त ही न हो सकी।
जो शिव से जुड़ी, वह मुक्तिदायिनी बन गयी।
गांगेय होना कठिन है? कौन चाहता है मुक्ति को?
यामुन होना सरल है? प्रीति कौन नहीं चाहता?
भक्ति भी प्रीति ही तो है।
यामुन होना हमारा यौवन है, रस चाहेगा, रास रचायेगा।
गांगेय होना हमारा प्रौढपन है, स्नान करेगा, तो देह से भी मुक्त हो जाने की कामना करेगा।
गांगेय होना शरद में कंपायमान होना है। वह हिमालय में जो है।
यामुन होना वर्षा में आर्द्र होना है। वह गोवर्धनधर की जो है।
सारस्वत होना हमारा बालपन है। वही मन इतना निर्मल है कि मलिनता का बोध ही न हो, कुछ धुलने की चाह ही न उठे। वही मन इतना निर्लिप्त है कि न राग उमगे, न विराग जगे। वही मन इतना पावन है कि वीणा जब अंतस् के तार झंकृत करे, वह अपने परिधान की धवलता और दीप्त कर सके। वही मन इतना पावन है कि वसंत पंचमी आये और मन वसंत के रंग में रँगने की बजाय संत की तरह कर में माला लेकर पूजन के लिए निकल जाए।
इस संसार में न तो सरिता रूप में सरस्वती है, न ही सरस्वती को समर्पित कोई मंदिर है। वह चित्रों में है, परंतु उनका कोई चरित नहीं रचा गया। वह मूर्तियों में है, परंतु उनका कोई मंदिर नहीं निर्मित किया गया।
जीवन गंगा-यमुना के द्वंद्व में बीत गया।
न धार में बह सके, न पार ही उतर सके।
मेरे अंतस् की अंतर्लीन सरस्वती!
तुमने वरद हस्त से मुझे बहुत दिया,
पुस्तक भी, माला भी,
बस मैं ही वीणा साध न सका,
वह वक्रता, जो तुम्हारी कला से वलयित हो जाती,
वह तीक्ष्णता, जो तुम्हारी साधना से गोलाभ हो जाती।
