देवांशु झा : मुकेश.. विज्ञान कहता है–आवाज़ सीधी चलती है…

दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाए…फिर जाए जो उस पार कभी लौट के न आए….!

मुकेश अगर यही दो पंक्तियाॅं गाकर इस संसार से विदा हो गए होते तब भी मेरे लिए मुकेश ही रहते। मुकेश चंद माथुर…। बंदिनी फिल्म के इस गीत से मुकेश अपना गायन और अपनी उपस्थिति एक कर गए हैं। दर्द का सुर उनकी संज्ञा हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे युगों-युगों से यह आवाज़ दुख और विरह की आकाशगंगा में विचर रही है और अंततः उसी में डूब गयी है। इतना सहज स्वर! परंतु कितना गहन! कितना तपा हुआ !!

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रफ़ी, किशोर और मुकेश में मुकेश ही कम वर्सटाइल थे । पर, जहाॅं मुकेश का अधिकार था वहाॅं ये दोनों नहीं थे । दर्द उनका दाहिना हाथ था। गान की देह का कोई ज़रूरी अंग सा। जिसके बिना वह पूरे नहीं होते। जिसके लिए उन्हें किसी किस्म की नाटकीयता का सहारा नहीं लेना पड़ता था। उनके गाए दर्जनों गानों को सुनते हुए यह अनुभव किया जा सकता है। मेरा नाम जोकर एक अनन्य उदाहरण है । या फिर, सारंगा, बंबई का बाबू, संगम, कभी कभी के गानों से इस बात को महसूस किया जा सकता है । वो मेरे दोस्त तुम ही थे! ओह…

मुकेश मुझे आत्मा और आवाज़ के द्वय को एक करने वाले गायक लगते हैं। गाॅंव देहात का कोई गवैया। जैसा भीतर बैठा मन, वैसा ही बाहर का गायन। एकदम पवित्र और निश्छल।‌ कोई कलाबाजी नहीं। मुकेश ने सबसे अधिक राजकपूर के लिए गाया। बाद में वह मनोज कुमार के स्वर बने। यदाकदा उन्होंने सबको अपनी आवाज़ दी । जिसमें अमिताभ बच्चन भी शामिल हैं और मैं यह कह सकता हूँ कि अमिताभ की आवाज़ की प्रकृति को मुकेश रफ़ी के बनिस्बत कहीं अधिक सूक्ष्मता से पकड़ते हैं। (यद्यपि अमिताभ के लिए सर्वोत्तम आवाज़ किशोर कुमार की है। ) कल और आएंगे नगमों की खिलती कलियाॅं चुनने वाले, मुझ से बेहतर कहने वाले, तुम से बेहतर सुनने वाले…! इस गीत‌ को बार-बार सुनिए।‌ आप मेरी बात सहजता से समझ सकेंगे। मुकेश इस सत्य के प्रतिमान हैं कि सिनेमा में गाने के लिए साधारणता कोई दैन्य नहीं। कथित उपशास्त्रीय होने का पट्टा एक धोखा है। (पुरुषों में मन्ना दा अपवाद हैं)वह साधारण होकर कुछ अनन्य साधारण गाते हैं। जीवन की नश्वरता कितनी बोधगम्य हो जाती है और अवसाद..उदासियाॅं तो उनके स्वर में अन्तर्भुक्त ही हैं!

मुकेश मस्ती वाले गानों में नहीं जमते थे या खास किस्म के रोमांटिक गानों में उनका गाना प्रभावी नहीं है परन्तु दुख का स्वर तो उनका अक्षर धन है। विज्ञान कहता है–आवाज़ सीधी चलती है ! मेरा मन कहता है, मुकेश की आवाज़ सबसे अधिक समय तक सीधी चलती है और सीधी-सीधी भीतर उतर जाती है !!

दिलचस्प यह भी है कि वे अपनी आवाज़ को सबसे अधिक समय तक सुरक्षित और स्थिर रख सके। रफ़ी और किशोर दोनों अपनी मृत्यु से पांच वर्ष पूर्व खराब गाने लगे थे। किशोर में एक किस्म का भारीपन और भौंडापन आ गया था जबकि रफ़ी में बुढ़ौती बोलने लगी थी। मन्ना दा सबसे सिद्ध, हुनरमंद होते हुए भी अपनी आवाज़ को क्षरण से बचा नहीं सके थे। परंतु मुकेश की आवाज़ लगभग एक जैसी रह गयी। थोड़ा परिवर्तन तो सबमें होता है ।

मुकेश मेरे प्रिय गायक नहीं हैं। लेकिन मुकेश से मुक्ति भी नहीं है। जब भी कहीं; जाने कहाँ गए वो दिन या बंदिनी का मेरा प्रिय गीत, ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना, बजता है, मैं ठहर कर सुनता हूँ। वह आवाज़ मुझे थाम लेती है । ऐसा लगता है जैसे भीतर कुछ टूट रहा है। आश्चर्य है कि वैसी टूटन अपने प्रिय गायकों को सुनते हुए भी नहीं होती।

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