देवांशु झा : उत्थान.. संस्कृत के स्कॉलर हो रहे आईआईटी से कंप्यूटर इंजीनियरिंग पढ़ने वाले मेधावी छात्र

धर्म और परम्परा आदि पर चर्चा करते हुए अक्सर हम सुनते हैं कि हमारे बाबा या हमारे नाना संस्कृत के विद्वान थे। दिव्यता से मंत्रोच्चार करते थे। मुझे ध्यान आता है कि मैंने स्वयं दर्जनों लोगों को इसी मंच पर ऐसा कहते हुए पढ़ा और देखा है।‌ तब मेरे मन में यह बात आती है कि भला संस्कृत भाषा के पठन-पाठन की स्वाभाविक क्रिया दो-तीन पीढ़ी पहले ही क्यों थम गयी।‌ इसका एक सर्वस्वीकृत साधारण सा उत्तर तो यही है कि हम अंग्रेजी पढ़ने लगे। अंग्रेजी की लोकप्रियता के सामने संस्कृत भाषा का अस्तित्व ही नष्ट होता चला गया।

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यहां तक कि कुछ प्रगतिशील आधुनिकचेता जनों ने संस्कृत को मृतभाषा की संज्ञा ही दे डाली। जब उन्होंने संस्कृत को मृत भाषा कहा तब केवल उसके विकास रुक जाने की घोषण नहीं की बल्कि बड़े दर्प से उसकी हजारों वर्ष पुरानी अद्वितीय बौद्धिक सम्पदा और सतत नवीकरणीय शक्ति को भी सिरे से नकार दिया। संस्कृत इज अ डेड लैंग्वेज!

मैं इस विषय पर बाद में आऊंगा। पहले संस्कृत से विमुख होने पर कुछ कहना चाहता हूं। जो बात मैंने ऊपर कही हैं-उसका एक उदाहरण मुझ में भी ढूंढ़ा जा सकता है। मेरे नाना संस्कृत के बड़े विद्वान थे। उनकी दस संतानें थीं। छह बेटे, चार बेटियां। छह बेटों में दो प्रोफेसर और दो इंजीनियर रहे हैं। दो अपना काम करते रहे।‌ किसी ने भी अपने पिता की परम्परा को आगे नहीं बढ़ाया। उसके तात्कालिक कारण भी रहे। कुछ आर्थिक विवशताएं भी थीं। किन्तु मूलतः तो हम यही समझ पाते हैं कि पिता के लिए बहुत सम्मान होते हुए भी संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता उनके मन में थी। अग्नि रही होती तो अवश्य पढ़ते। इसी तरह से अगणित परिवारों में पारम्परिक पठन-पाठन की श्रृंखला टूटती चली गई।

मेरे पिता को संस्कृत भाषा का आधिकारिक ज्ञान नहीं था। वह स्कूली संस्कृत जानते थे। वह राजनीति विज्ञान के अध्यापक थे। अंग्रेजी और हिन्दी उनकी बेजोड़ थी। उनके भीतर एक मलाल था कि वह संस्कृत नहीं पढ़ पाए। एक समय जब मैं संस्कृत पढ़ना चाहता था, तब पिता ने मुझे प्रोत्साहित किया था। हिन्दू कालेज में दाखिला मिल रहा था। मेरी मति मारी गयी। मैं पटना कालेज लौट गया। आज मुझे संस्कृत भाषा का महत्व अधिक समझ में आता है। (यों मैं बचपन से ही इस भाषा की दिव्यता से अभिभूत हूं।)मैं लेखन करना चाहता हूं/करता हूं। सामान्यत: मेरे पास शब्दों का कोई सूखा या अकाल नहीं है। किन्तु उसका वैभव भी नहीं है। संस्कृत भाषा का गंभीर अध्येता रहा होता तो मेरी शब्द-संपदा अत्यधिक समृद्ध होती। उसे मैं निरंतर स्वाध्याय कर समृद्ध कर सकता हूं। लेकिन वह और बात है।

मुझे ध्यान आता है कि मेरे विद्यालय के दिनों में ही संस्कृत के आचार्यों का सम्मान घटने लगा था। कुछ लोग बहुत सम्मानीय थे किन्तु अधिकांश की पूछ नहीं थी। उसका पहला कारण तो यही था कि हमने अपनी महान भाषा को महत्व देना बंद कर दिया था। या कि अंग्रेजी की गुलामी ने हमें संस्कृत से विमुख किया। दूसरा कारण स्वयं संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षक थे। अधिकांश अपनी गरिमा खुद नष्ट कर डालते। मनुष्य अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है। चाहे तो उसे गरीयता प्रदान करे, चाहे तो नमूना बनाकर रखे।‌ एक विचित्र हीनता-बोध ने हमारा बड़ा अहित किया। संस्कृत भाषा हमारे शिक्षण से कटती-हटती चली गई। रही सही कसर अगंभीर, जोकर जैसे आचार्यों ने पूरी कर डाली।‌ यही गति हिन्दी की भी हुई। होनी ही थी। मां दरिद्र होगी तो बेटी समृद्धि को कैसे पावेगी!

लगभग चालीस पचास वर्ष का कालखंड इस भाषा के लिए सबसे बुरा था। यह वही कालखंड है जिसे प्रगतिशील लोग गोल्डेन नेहरूवियन एरा कहते हैं। भारतीयता से विमुख करने के चतुर्दिक प्रयास इसी समय हुए। जिसके परिणाम हम आज भोग रहे हैं। किन्तु एक प्रतिगामी समय के बाद आज देखता हूं कि संस्कृत भाषा को नवजीवन मिल रहा है। बड़ी संख्या में लोग इसे पढ़ना चाहते हैं।‌सबसे महत्वपूर्ण और सुखद यह कि आईआईटी से कंप्यूटर इंजीनियरिंग पढ़ने वाले मेधावी छात्र संस्कृत के स्कॉलर हो रहे। मैं मानता हूं कि आज के समय वे इस भाषा के महान सेवक हैं। पारम्परिक गुरुओं का ज्ञान तो है ही किन्तु सर्वथा नवीन और विज्ञान के क्षेत्र से जुड़े लोग संस्कृत की सेवा कर रहे-इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।

मुझे आशा है कि संस्कृत की सलिला नयी जलधाराओं के मिलने से रसवंती होगी। लगभग दस हजार वर्ष का सातत्य जो एक समय टूटने का संकेत कर चुका था, बल्कि उसकी तो मृत्यु की ही घोषणा कर दी गयी थी-वह फिर से जी उठा है। प्रसाद के शब्दों में कहूं तो संकीर्ण कगारों के नीचे शत-शत झरने बेमेल चलने लगे हैं जो अंततः उसी विशाल नदी को स्रोतसमृद्धा कर रहे हैं, जिसे हम संस्कृत कहते हैं। मुझे भय केवल उन लोगों से है जो संस्कृत पढ़ते पढ़ाते हुए कूपमण्डूक होने की शिक्षा देते हैं। आप समझ सकते हैं-मेरा इशारा किस ओर है। सा विद्या या विमुक्तये! संस्कृत भाषा से अधिक मुक्त भला कौन सी भाषा है। यह सूक्ति भी संस्कृत भाषा से ही उपजी है। और इस संसार की सबसे उदारमना, उदात्त, धवल-निर्मल सूक्तियों की रचना भी संस्कृत भाषा में ही हुई है।

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