विद्यासागर वर्मा : वेद : ईश्वरीय ज्ञान (भाग 31) X) वेदों में विज्ञान (12)

च) वेदों में रसायन विज्ञान
( Chemistry and Alchemy in the Vedas)

सृष्टि के सभी पदार्थ भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान तथा अन्य ईश्वरीय विधान के अनुसार संचालित होते हैं। गत लेख में हमने वेदों में भौतिक विज्ञान (Physics) का वर्णन किया, अब रसायन विज्ञान का वर्णन करते हैं।

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i) रसायन विज्ञान क्या है ?

‘ रस ‘ का अर्थ है सार (Essence), ‘अयन ‘ का अर्थ है मार्ग/ विधि ( Way/ Process). सृष्टि के तत्त्वों/ पदार्थों के अपने – अपने क्या गुण हैं; वे किन-किन तत्त्वों के बने हैं; जब वे एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं , उनका एक दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ता है, अथवा यदि वे सर्वथा तीसरा तत्त्व/ पदार्थ बन जाते हैं, उसके क्या गुण होते हैं इत्यादि।
Collins Dictionary में Chemistry की परिभाषा इस प्रकार दी गई है : ” Scientific study of the characteristics and composition of substances and of the way that they react with other substances.”
अर्थात् पदार्थों का वैज्ञानिक अध्ययन कि उनके गुण क्या हैं; कैसे बने हैं और अन्य पदार्थों के सम्पर्क में आने पर उनकी क्या प्रक्रिया होती है इत्यादि।
उदाहरणार्थ, हाइड्रोजन र ऑक्सिजन दोनो गैस हैं परन्तु रासायनिक प्रक्रिया के बाद जल बन जाते हैं ! इसी प्रकार फ़ोटोसिन्थिसस् वह रासायनिक प्रक्रिया है जिस से पौधे भोजन बनाते हैं और वही भोजन जीवन की आधारशिला है।
स्वास लेना भौतिक प्रक्रिया है परन्तु अन्दर ली हुई ऑक्सिजन कैसे शरीर की शर्करा (ग्लूकोस) को एनर्जी/ शक्ति में परिणित करती है, यह रासायनिक प्रक्रिया है।

ii) अग्निषोमात्मकं जगत् — शतपथ ब्राह्मण
(The whole world is the product of Agni and Soma.)

वैदिक सिद्धान्त है कि समस्त जगत् अग्नि और सोम तत्त्वों की उत्पत्ति है। यहां अग्नि से अभिप्राय आग्नेय तत्त्व ( तेज, प्रकाश/ Heat , Luminousity) है तथा सोम से अभिप्राय जलीय तत्त्व ( शान्तिप्रद, तरल / Soothing, Liquidity) है। “यच्छुष्कं तदाग्नेयं यदाद्रं तत्सौम्यम्।” — शतपथ 1.6.3.23, जो शुष्क है, वह आग्नेय है, जो गीला हो, वह सोम तत्त्व है। अग्नि तीन प्रकार की कही गई है — द्युलोकीय (सूर्य), अन्तरिक्षीय ( विद्युत), पार्थिव ( आग, लावा, जठराग्नि /Fire, Lava, Bodily Heat) आदि। सोम की परिभाषा इस प्रकार की गई है : ” भद्रा तत्सोम: ” — ऐतरेय ब्राह्मण 5.25 , जो कल्याणकारी पदार्थ है, वह सोम है। ” आप: सोम सुत: ” – शतपथ 7.1.1.22, आप:/जल सोम का पुत्र है। ” रस: सोम:।” — शतपथ 7.3.1.3, रस सोम है। ” सोम ओषधीनामधिराज:” – गोपथ ब्राह्मण 1.17, सोम ( लता विशेष) औषधियों का राजा है। लाक्षणिक अर्थ में, अग्नि ईश्वर, मन/ इन्द्रिय- ज्योति के लिए प्रयुक्त होता है तथा सोम का अर्थ है ईश्वर, चन्द्र, अमृत, आनन्द, शीतलता ,शान्तिप्रद पदार्थ, सोम लता का रस , फलों का रस, शरीर में उत्पन्न होने वाले रोगनाशक स्राव इत्यादि।

वेदों की भाषा वैदिक संस्कृत है जो लौकिक संस्कृत से भिन्न है। वैदिक शब्द यौगिक (Derivative) और अनेकार्थक होते हैं । इनके अर्थ समझने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों, निरुक्त, निघण्टु ( Vedic Dictionary) आदि ग्रंथों की सहायता लेनी पड़ती है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उदाहरणार्थ, गौ शब्द का अर्थ गाय के अतिरिक्त पृथ्वी, सूर्य की किरणे, इन्द्रियां , जिव्हा, पशु आदि भी है। प्रकरणानुसार इनका अर्थ लगाना पड़ता है। हर मंत्र का देवता होता है। देवता का अर्थ है उस मंत्र का विषय / Subject matter.

अब रसायन विज्ञान की दृष्टि से कुछ तत्त्वों की विवेचना करते हैं ।

iii) जल की वैदिक संरचना (Composition of Water) :

” मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम्।
धियं घृताचीं साधन्ता।।”
— ऋग्वेद 1.2.7 ( देवता — मित्रवरुणौ)

अर्थात् मैं (मित्रं) प्राण वायु/ आक्सीजन को जो ( पूतदक्षं ) पवित्र एवं बलशाली है, तथा (वरुणं) वायु /हाईड्रोजन को, जो (रिशादसम्) दोषों को दूर करती है, (धियं) बुद्धिपूर्वक (साधन्ता) मिलाता हुआ
(घृतांचीं) दीप्ति से जल को (हुवे) प्राप्त करता हूं।

( मन्त्रार्थ का शास्त्रीय प्रमाण :
“प्राणो वै मित्र:” — शतपथ ब्राह्मण 6.5.7.14, प्राणवायु मित्र है। ” अयं वै वायुर्मित्रो योsयं पवते ।” श. 6.5.7.14, यह जो वायु बहती है, मित्र ( आक्सीजन ) है। ” वायोर्जलस्य वा वरुण पदनाम ” निघण्टु 5.4, वायु और जल वरुण के ही नाम है। ” मेघस्य वरुण इति पदनाम” — निघण्टु 5.6, मेघ/ बादल व‌रुण का अन्य नाम है।” अप्सु वै वरुण:” तैत्तिरीय ब्राह्मण 1.6.5.6 जलों में वरुण (हाईड्रोजन) है। “घृतमित्युदकनाम” – निघण्टु 1.12, उदक/जल का नाम घृत है। घृताची:= “या घृतमुदकमञ्चन्ति प्रापयन्ति ता: द्युती: ” — अष्टाध्यायी / घृत =जल को प्राप्त कराने वाली ज्योतियां।)

” विद्युतो ज्योति: परि संजिहान मित्रावरुणा यदपश्यतां त्वा।
तत्ते जन्मोतैकं वसिष्ठागस्त्यो यत्तवां विश आ जभार।।”
— ऋग्वेद 7.33.10 ( देवता वसिष्ठ)

अर्थात् हे (वसिष्ठागस्त्य) पवित्र जल जब (विद्युतो ज्योति: ) विद्युत ने ( मित्रावरुणा त्वा ) तुम आक्सीजन और हाइड्रोजन को ( पश्यताम्) देख कर, अपनी ज्योति ( current) से ( परि संजिहानम्) सम्पर्क किया, ( तत्ते जन्म) तब तुम्हारा जन्म हुआ ( उत ) और (तवाम्) तुम्हें ( विश:) प्रजा ने ( आ जभार) प्राप्त किया।

” उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन्मनसोsधि जात:।”
— ऋग्वेद 7.33.11 ( देवता वसिष्ठ )

अर्थात् (ब्रह्मन्) हे शक्तिशाली जल तुम ( मैत्रावरुणो) ओक्सीजन और हाइड्रोजन (H2O) के संघात (असि ) हो, ( उत ) और ( उर्वश्या ) विद्युत के ( मनसा) प्रभाव से (अधिजात:) उत्पन्न हुए हो।

( ” उर्वश्यप्सरा “, ” अप्सरा अप्सारिणी ” निरुक्त 5.14 , उर्वशी अप्सरा है, अप्सरा का अर्थ है आप:/ जल में सर्पण करने वाली। ” मन एवं वत्स:” — शतपथ 11.3.1.1, मन ही पुत्र है। ” य: श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठ:” — गोपथ उत्तर 3.9, जो गुणों में श्रेष्ठ है, वसिष्ठ कहलाता है।)

जल (Water) की वैदिक परिभाषा वैज्ञानिक परिभाषा से अधिक उपयुक्त :

जल सम्बन्धी उद्धृत वेद मंत्रों से स्पष्ट होता है कि पानी (Water) मात्र हाईड्रोजन और आक्सीजन का सामान्य संघात (H2O) नहीं है, इस संघात में विद्युत का विशिष्ट योगदान है, उसके बिना पानी अस्तित्व में नहीं आ सकता। यह सर्वविदित है कि मेघ में जो वाष्प रूप में जल है वह विद्युत के सम्पर्क से उद्बुध (precipitate) होकर बरसता है। वातावरण में ऑक्सिजन और हाइड्रोजन दोनों होते हैं, पर वह जल तब तक नहीं बन सकता जब तक विद्युत ( Electricity) प्रवाहित न हो, अन्यथा ऑक्सिजन साँस लेने के लिए कहाँ से बचती ?

इसी प्रकार, सूर्य की किरणों के ताप से समुद्र का पानी अन्तरिक्ष में चला जाता है, जो जल का वाष्प रूप है। तथाहि, पानी आग से उबालने पर, वाष्प बन कर उड़ जाता है। वही पानी ऊष्णता के नितान्त अभाव में, बर्फ बन जाता है। यही ‘अग्निष्टोमात्मकं जगत् ” का स्वरूप है ( Play of Agni and Soma) है।

iv) वेदों में धातुओं द्वारा रोगों का उपचार

“हिरण्यश्च मे sयश्च मे श्यामं च मे लोहश्च मे
सीसं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पताम्।।”
— यजुर्वेद 18.13

अर्थात् सोना, चान्दी, तांबा, लोहा, सीसा, जस्त को विधिवत् साध कर मेरा कल्याण हो।

” सीसेन दुह इन्द्रियम् ”
— यजुर्वेद 21.36

अर्थात् सीसा से इन्द्रिय बल प्राप्त करो !

“इदं बाधते अत्त्त्रिण:
…जातानि पिशाच्या:।”
— अथर्ववेद 1.16.3

अर्थात् (इदं) सीसा (जातानि) शरीर में उत्पन्न होने वाले
अत्रि, पिशाच आदि कीटाणुओं को मारता है।

” यो गोषु यक्ष्म: पुरुषेषु यक्षमस्
तेन साकमधराङ् परेहि ।।”
— अथर्ववेद 12.2.1

अर्थात् (यो) हे पूर्व कथित सीसा! गौओं में तथा मनुष्यों में (यक्ष्मा) क्षयरोग ( Consumption) को दूर ले जा।

v) यह सर्वविदित है कि प्राचीन काल में वैद्य सोना, चांदी आदि की भस्म का प्रयोग रोगों के उपचार के लिए किया करते थे। इसके अतिरिक्त, सोना, चांदी, तांबा, लोहा के बर्तनों में खाना पकाने और खाने का विधान है। इससे सिद्ध होता है कि वे इन धातुओं के रासायनिक गुणों को भलीभाँति जानते थे। वैज्ञानिकों ने भी प्लास्टिक बर्तनों में खाना खाने के दुष्परिणामों को रेखांकित कर के, हमारी प्राचीन पद्धति की पुष्टि की है।
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शुभ कामनाएँ
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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