आलोक बृजनाथ : वेद क्यों नहीं छापता गीता प्रेस ?
आज दोपहर एक ग्रुप में टहलता हुआ चला गया। दृष्टि एक चर्चा पर गई। वहां ठीक यही प्रश्न, जो मेरी टिप्पणी का शीर्षक है, एक सज्जन ने पूछा था। उपस्थित विद्वजन अपने-अपने विचार, तर्क, अनुमान और धारणाएं प्रस्तुत कर रहे थे। लगभग सभी का विचार था कि गीता प्रेस, गोरखपुर को भी वेदों का प्रकाशन करना चाहिए, क्योंकि वेद सनातन के आदि ग्रंथ हैं।
मुझे स्मरण हो आया कि एक बार मैंने गीता प्रेस प्रबंधन से जुड़े एक सज्जन का स्पष्टीकरण कहीं पढ़ा था – ‘चूंकि वेदों की संस्कृत भाषा लौकिक अर्थात प्रचलित संस्कृत से अलग है और विद्वानों के अनुवादों में अत्यंत गंभीर अंतर है। साथ ही, सभी विद्वानों के विचार एक साथ प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं है, अतः गीता प्रेस, गोरखपुर वेदों का प्रकाशन नहीं करता।’
मैंने उसी उल्लेख के साथ यह तर्क वहां प्रस्तुत कर दिया, लेकिन विद्वजन का समूह मानने को तत्पर न हुआ। तब मेरे मन में विचार आया कि किसी एक मंत्र के कुछ अनुवाद इनके लिए प्रस्तुत कर दूं, किंतु वहां इस सुदीर्घ टिप्पणी का कोई प्रतिफल संभवतः नहीं होता, तो यहां देखें कि वैदिक मंत्रों का विभिन्न विद्वानों ने अपनी दृष्टि से अनुवाद किस भांति किया है। मैं केवल एक मंत्र प्रस्तुत कर रहा हूं।
ऋग्वेद (7/59/12), अथर्ववेद (14/1/17) तथा यजुर्वेद (3/60) के मंत्रों में त्र्यंबकं शब्द आया है, और केवल इसी शब्द पर कितना गहन मतभेद विद्वानों में है, इस पर दृष्टि अवश्य बनाए रखें।
त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिम पुष्टिवर्धनम।
उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मक्षीय मामृतात।।
“हम लोग जो शुद्ध गंधयुक्त शरीर, आत्मा और समाज के बल को बढ़ाने वाला (त्र्यंबकं) जगदीश्वर है, उसकी निरंतर स्तुति करें। इसकी कृपा से जैसे खरबूजा फल पक कर लता के संबंध से छूट कर अमृत के तुल्य होता है, वैसे हम लोग भी प्राण वा शरीर के वियोग से छूट जाएं और मोक्ष-रूप सुख से श्रद्धा-रहित कभी न हों।”
– स्वामी दयानंद सरस्वती
“हम सुरक्षित, पुष्टिवर्धक त्र्यंबक का पूजन करते हैं। हे रुद्र! हमें मृत्यु के पाश से छुड़ाओ और अमृत से दूर मत रखो।”
– आचार्य श्रीराम शर्मा
“उत्तम यशस्वी पोषण-साधनों का संवर्धन करने वाले, तीन प्रकार से संरक्षण करने वाले देव की हम उपासना करते हैं। यह देव कंकड़ी को मुक्त करते हैं, इस तरह मृत्यु के बंधन से हमें मुक्त करें, परन्तु हमें अमरत्व से कभी न छुड़ाएं, परन्तु हमें अमरत्व से संयुक्त करें।”
– श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
“(त्र्यंबकं) शक्तित्रय से युक्त परमेश्वर की हम उपासना करें, जिससे मैं मृत्यु के बंधन से मुक्त होऊं और अमृत अर्थात मोक्ष से दूर न होऊं। परम पालक को प्राप्त कराने वाले इस ईश्वर की पूजा करें, जिससे हम इस देह-बंधन से छूटें, उस परम मोक्ष से वंचित न रहें।”
– पं. जयदेव शर्मा
“दिव्य गंध-युक्त मर्त्यधर्म-हीन उभय लोकों का फल देने वाले धनधान्यादि की पुष्टि बढ़ाने वाले पूर्वोक्त तीन नेत्रों वाले शिव को हम पूजते हैं। वह हमको संसार के मरण से छुड़ाए, बंधन से कर्करी फल के जैसा अर्थात जैसे पका हुआ फल अपनी घुजी से छूट कर भूमि पर गिर जाता है, वैसे ही शिव की कृपा से मैं जन्म-मरण रहित हो जाऊं।”
– रामस्वरूप शर्मा
“हम सुगंधि-प्रसारित पुण्यकीर्ति पुष्टिवर्धक, जगत बीज वा आनमादि शक्ति-वर्धन त्र्यंबक (ब्रह्मा, विष्णु और महेश को पिता वा आदि कारण) की पूजा या यज्ञ करते हैं। रुद्रदेव उर्वारुक फल की तरह हमें मृत्यु-बंधन (संसार) से मुक्त और अमृत (चिरजीवन या स्वर्ग) से मन-मुक्त करो।”
– रामसुंदर त्रिवेदी
इस तरह स्पष्ट दृष्टिगोचर है कि विद्वानों में शब्द, भाव, प्रतीक आदि के अर्थ पर पर्याप्त मतभेद है। संस्कृत के हिंदू विद्वानों की स्थिति जब यह है, तो उन विदेशियों के अनुवादों की हालत क्या होगी, जो अनुवाद के समय अपनी मजहबी या रिलीजियस दृष्टि से सनातनी तत्वों को देखते हैं अथवा अपने ही प्रतीकों तथा प्रतिमानों पर उन्हें परखते हैं, यह सहज समझा जा सकता है।
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नोट – कुछ मित्रों को सभी अनुवाद समान लगे, उनके लिए यह और – स्वामी दयानंद सरस्वती मूर्तिपूजा विरोधी थे, अतः वे जगदीश्वर (जगत का ईश्वर अर्थात एक, निराकार) अर्थ ले रहे हैं। वैष्णव मत में जगदीश्वर विष्णु का अन्य नाम है, जबकि आचार्य श्रीराम शर्मा उसका अर्थ रुद्र ले रहे हैं। वैदिक रुद्र शिव से अलग देव थे, ऐसी भी एक मान्यता है। रामस्वरूप शर्मा ने सीधे ही शिव लिखा है। जयदेव शर्मा ने तीन शक्तियों से युक्त परमेश्वर (निराकार) अर्थ लिया है, तो सातवलेकर ने किसी देव का नाम ही नहीं लिखा। रामसुंदर त्रिवेदी इसका अर्थ त्रिदेव (अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों) लगा रहे हैं। इसी तरह अन्य अनुवादों में पर्याप्त अंतर है।