देवांशु झा : पहलवानी का जंतर..पहलवानों की राजनीति
आज से लगभग पचहत्तर-सौ वर्ष पहले इस देश के अपराजेय पहलवान सैकड़ों कुश्तियां लड़ने और उनमें विजयी होने के बाद कहा करते थे कि अब मुझे चुनौती देने वाला पहले मेरे चेले से लड़ेगा। वे सभी पहलवान वैश्विक पहचान रखते थे। अब ओलंपिक में दूसरे तीसरे राउंड में मलिन होकर लौटने वाले/वाली घोषणा करते हैं कि हम नेशनल नहीं खेलेंगे! बस यही उनके अंत का आरंभ है।यही पतन का प्रस्थानबिंदु है।
पहलवानी के जोर पर अगर यह संसार जीता जाता तो महाबली पहलवान बहुत पहले इसे जीत चुके होते। पहलवानी में एक समय जब भारत के महामल्ल खम ठोंक कर उतरते थे, तब यूरोप की हरक्यूलीयन शक्ति के आधुनिक प्रतीक पुरुषों का दम फूल जाता था। परन्तु उन महाबली योद्धाओं में बड़ी विनम्रता थी। वे उन राजाओं, रियासतों के प्रति जीवन-भर कृतज्ञ रहे, जिनकी छत्रछाया में पले-पल्वलित, ऊर्जस्वित हुए। आज के पहलवान कहते हैं- मोदी तेरी कब्र खुदेगी! नींबू की तरह निचोड़ देंगे! हम मेडल लाते हैं इसलिए हमारी पसंद का अध्यक्ष बनाओ! आदि आदि…। यह जो अशोभनीय हुंकार है,वह किसी व्यक्ति या दमनकारी सत्ता के विरुद्ध नहीं है। यह हुंकार लोकतंत्र के प्रति अमर्यादित स्वर है,कृतघ्नता है। अगर बृजभूषण शरण सिंह दोषी हैं(जिसकी संभावना नगण्य प्रतीत होती है)तब भी ऐसे नारे नहीं लगाए जा सकते। ये नारे उनके असंतोष को नहीं दर्शाते बल्कि उनकी कुत्सित राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उसके हित-साधन की कुचेष्टाओं को दिखलाते हैं।
इन्हें भ्रम है कि ये अपने धरने और धमकियों से उस मनुष्य को परास्त कर देंगे, जो भारतीय खेल और खिलाड़ियों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है। जो खेल में हर छोटी बड़ी सफलता पर व्यक्तिगत रूप से खिलाड़ियों का उत्साहवर्धन करता रहा है। ध्यान से देखिए-पहलवानी स्टाइल की राजनीति ही भारत में चल रही। आप लगभग संपूर्ण विपक्ष की भाषा सुन लीजिए। ये फिरौतीबाज, गली में वसूली करने वालों की भाषा बोलते हैं। यह भी एक सत्य है कि कुछ जाति धर्म के जटिल समीकरणों की शक्ति के सहारे ये गिने चुने लोकतांत्रिक अखाड़ों पर जीत सके हैं। अधिकांश मुकाबलों में ये चारों खाने चित हुए हैं। यह भी द्रष्टव्य है कि इनकी पीठ पूरी तरह मिट्टी से सट जाने के बाद भी ये हार नहीं मानते। बार-बार उसी अमर्यादित भाषा के साथ मैदान में उतरते हैं। जैसे ये नेता, वैसे ही ये पहलवान। दोनों में कोई चारित्रिक भेद नहीं।
एक समय में मैंने ओलंपियन सुशील कुमार को आदर्श एथलीट माना था। खूब लिखा करता था। वह एक अपराधी सिद्ध हुआ।मारपीट दबंगई वसूली करने वाला बॉडी बिल्डर-जो गिरोह बनाकर लोगों को डराता धमकाता है। उसकी सारी उपलब्धियां नाले में बह गईं। जो कुश्ती के पारम्परिक खेल में पथ-प्रदर्शक पुंज हो सकता था, वह नष्ट हो गया। महान मैराडोना की कीर्ति शेष न रही तो ये कौन हुए? जंतर मंतर पर बैठे सभी पहलवान उसी कल्ट के प्रतिनिधि हैं। उनमें से किसी की भाषा चैंपियन एथलीट की भाषा नहीं है। देश और भारत के पारम्परिक खेल की मर्यादा तो दूर की बात है। यह कड़वा सत्य भी है कि उनमें से कोई चैंपियन एथलीट है ही नहीं। ओलंपिक और कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जरूर जीते हैं परन्तु कई बार पराजित भी हुए। बुरी तरह पिट कर लौटे हैं। फिर किस बात का अहंकार! पर अहंकार है। अकड़ कहिए। वह तो उनमें विश्वविजेताओं वाली है। सच्चे विश्वविजयी खिलाड़ियों में अकड़ नहीं होती। नम्रता होती है। जिस साधना में वह तपते हैं, वह साधना उन्हें झुकाती है।विनयशील बनाती है।