IAS कृष्णकांत पाठक : सर्वनाम : एक अधूरी संज्ञा, एक अव्यक्त नाम

तुम की जगह “तू” तो कभी “आप” हो जाता है,
तब वे जाने क्यों बहुश: अन्य पुरुष में चले जाते हैं।
तू में नेह भी है, निरादर भी,
आप में दूरी भी है, आदर भी.

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व्याकरण में कारक गणना के समय जब संज्ञा, सर्वनाम दुहराये जाते हैं,
तब यह द्वितीय कारक सहसा ठिठका सा लेता है।
वह बहुत स्वतंत्र नहीं है,
किसी संज्ञा का ही स्थानापन्न है।
वह नाम नहीं है, वरन् सर्वनाम है।
ऐसे जैसे विशेषण क्रिया मात्र का होकर क्रिया विशेषण बन जाता है।

संज्ञा के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द सर्वनाम हैं-
मैं, तुम, वह, हम, वे, आप सब.
सर्वनाम वक्ता-श्रोता ज्ञाननिधि सा है.
इसमें बोलनेवाले, सुननेवाले तथा जिसके विषय में बोला-सुना गया है,
तीनों के लिए अलग पद प्रयुक्त होते हैं,
जिन्हें क्रमशः मैं, तुम, वह के रूप में बोल सकते हैं।
ये कभी कौन, कोई की तरह प्रश्न व अनिश्चय भरे हो सकते हैं,
तो कभी यह, वह की तरह निश्चय लिए.
ये बहुत संक्षिप्त होकर भी बहुतों को समेट लेते है,
वे बहुवचन में जाकर अनेक नामों को बस एक नाम में व्यक्त कर देते हैं।
ये बहुत परोक्षाभिव्यक्ति होकर भी अपरोक्षानुभूति के वाचक बन जाते हैं।
वे बहुत सार्वजनिक होकर भी किसी अमुक की मूक अभिव्यक्ति बन जाते हैं।

सर्वनाम संबोधन है,
विभक्ति है संबंध बताने की,
किसी को कुछ कहने की,
या फिर कहते-कहते रुक जाने की.
नाम जो पहचान है, उसे भी गौण कर जाने की,
किसी को अनाम ही रख देने की,
और
स्वयं को भी अनाम ही कर देने की भी.

कहना कठिन है,
वह जो “किसी का नाम” है,
उसका “सर्व-नाम” होना,
सुविधा है, कुछ कह पाने की,
या
दुविधा है, कुछ न कह पाने की.

सर्वनामता की विशेषता ही उसकी सामान्यता में है।
कोई किसी के लिए कुछ कहे,
वह कहा सबका ही किसी के लिए हो जाता है,
या फिर उसका ही सबके लिए भी.
इसलिए इसमें एक दिलासा भी है और फिर झाँसा भी.
सर्वनामता एक झूठे सच और सच्चे झूठ की एक साथ अभिव्यक्ति है.

व्याकरण इन सर्वनामों को तीन पुरुषों, तीन वचनों में बाँटता रहा है।
अंग्रेजी के विपरीत संस्कृत में वह प्रथम पुरुष है। तुम मध्य में है, मैं अंत में, उत्तम पुरुष बना. प्रथम पुरुष अन्य पुरुष भी है।
जहाँ मैं और वह मिल जाएँ, सर्वनाम मध्य में तुम को ले आता है।
संबोधन में नैकट्य जो आ गया। इनमें अन्य पुरुष “वह” ही है, जो जरा तटस्थ है, विवरण का रूप हैं, शेष दो पुरुष “मैं” तथा “तुम” तो वार्ता के अंश हैं.

तुम की जगह “तू” तो कभी “आप” हो जाता है,
तब वे जाने क्यों बहुश: अन्य पुरुष में चले जाते हैं।
तू में नेह भी है, निरादर भी,
आप में दूरी भी है, आदर भी.
तो सर्वनाम नाम से अलग व्यवहार पर निर्भर करते हैं,
वे संज्ञा की तरह वस्तुनिष्ठ नहीं,
संबोधन की तरह व्यक्तिनिष्ठ हैं.

छोटे बच्चे बहुत बार स्वयं को भी मैं की बजाय नाम से ही बुलाते हैं।
यह अहंता विकसित होते समय लगता है।
अनेक संत हुए, जो स्वयं को सदा या बहुधा अन्य पुरुष में ही बोलते रहे,
नाम लेकर या फिर वह कह कर.
उन्होंने अहंता को पुनः विलीन कर स्वयं को तटस्थ कर दिया होता है।
एक दृष्टि से
जीवन “तत्-त्वमसि” के परस्मैपद से “सोऽहम्” के आत्मनेपद तक के सोपान तय करता रहा है।

कई बार लगता है, समय ही नहीं,
प्रेम और धर्म भी इतना परिवर्तन कर जाते हैं कि
सर्वनाम बदल जाएँ.
और कभी विपरीत भी कि
संबंध विच्छिन्न होकर संबोधन बदल जाएँ,
कुछ इस गीत की तरह कि
तुम रहे न तुम,
हम रहे न हम.

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