सुरेंद्र किशोर : कहीं जन औषधि केंद्रों का हाल आई.डी.पी.एल. जैसा न हो जाए !!
जन औषधि केंद्र से मिल रही सस्ती दवाओं के कारण इस देश के मरीजों ने गत साल अपने 5 हजार करोड़ रुपए बचाए ।
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संकेत हैं कि यह बचत आने वाले दिनों में बढ़ सकती है।
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यदि एक तरफ मरीजों ने बचाए हैं तो दवा व्यवसाय में लगे अति मुनाफाखोर लोगों ने इतने ही पैसे गंवाएं भी हैं।
यानी, उनके मुनाफे में कमी आई है।
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जिन मुनाफाखारों को हर साल हजारों करोड़ रुपए का ‘घाटा’
होने लगेगा,वे चुप नहीं बैठेंगे।
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मेडिकल क्षेत्र के अति मुनाफाखोरों पर नकेल कसने के लिए
सन 1961 में केंद्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में आई.डी.पी.एल.की स्थापना की थी।
उसका दवा कारखाना बिहार के मुजफ्फर पुर में भी था।
उसकी दवाएं अत्यंत सस्ती व कारगर होती थीं।
पटना के मशहूर डाक्टर शिवनारायण सिंह सिर्फ उसी
कंपनी की दवा लिखते थे।
उनकी दवा इसलिए भी कारगर होती थी क्योंकि आई.डी.पी.एल. की दवाओं में मिलावट से किसी को कोई खास लाभ नहीं होता था।
ब्रांडेड कंपनी की जो दवा दस रुपए में मिलती थी,आई डी पी एल की उसी फार्मूले वाली दवा दस आने में।
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मुनाफाखोर मेडिकल माफिया तथा अन्य तत्वों ने मिलकर आई डी पी एल को बंद करा दिया।
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जाहिर है कि निहितस्वार्थी तत्व जन औषधि केंद्रों की दवाओं को भी विफल करने के लिए सक्रिय हो गए होंगे।
अब यह केंद्र सरकार की सतर्कता पर निर्भर है कि वह आई डी पी एल की पुनरावृति कैसे रोकती है।
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साठ के दशक में लोक सभा में यह आवाज उठी थी कि जिस पेंसिलिन के उत्पादन में मात्र तीन आने का खर्च आता है,उसे सात रुपए में क्यों बेचा जाता है ?
याद रहे कि दवा क्षेत्र में भारी अतार्किक मुनाफे को अब भी केंद्र सरकार नहीं रोक पाई है।
हां,जन औषधि की दवाओं की समानांतर व्यवस्था करके परोक्ष रूप से मुनाफा रोकने का सराहनीय प्रयास जरूर हो रहा है।
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देखना है कि अंततः मुनाफाखोर जीतते हैं या सरकार !!
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