विनय कुमार : चंद्रयान को इसरो दक्षिणी ध्रुव में पहली बार लैंड क्यों करा रहा है
इतिहास में पहले उपलब्धि हासिल करने वालों का नाम याद किया जाता है, जैसे कि रूस चंद्रमा पर अपना यान भेजने वाला पहला देश था, लेकिन अमेरिका चंद्रमा पर कदम रखने वाला पहला देश बना।
अभीतक जितने भी सफल मून मिशन हुये हैं, सब चंद्रमाचंद्रमा के भूमध्य रेखा के निकट ही उतारे गये हैं। ऐसा इसलिये कि भूमध्य रेखा के पास दिन के तापमान में अंतर सबसे अधिक होता है। यहाँ रात में तापमान माइनस 120 डिग्री रहता है और दिन में 180 डिग्री तक पहुंच जाता है।
लेकिन ध्रुवों पर अरबों वर्षों से सूर्य की रोशनी नहीं पाने वाले कुछ क्षेत्रों में तापमान शून्य से 230 डिग्री तक नीचे जाने का आकलन लगाया जाता रहा है। इसका एक मतलब तो यही है कि यहाँ की मिट्टी में जमा चीजें लाखों सालों से वैसी ही हैं। इसरो इन चीज़ों की पड़ताल के लिए दक्षिण ध्रुव के पास उतरने की कोशिश कर रहा है। इसरो यहां लैंडर और रोवर्स उतारकर वहां की मिट्टी की जांच करने की कोशिश कर रहा है।
दक्षिणी ध्रुव के पास की मिट्टी में जमे हुए बर्फ़ के अणुओं की पड़ताल से कई रहस्यों का पता चल सकता है, सौर परिवार का जन्म, चंद्रमा और पृथ्वी के जन्म का रहस्य, चंद्रमा का निर्माण कैसे हुआ और इसके निर्माण के दौरान क्या स्थितियां थीं, यह जाना जा सकता है। इस जानकारी से चंद्रमा के जन्म के कारण, उसके भूगोल और उसकी विशेषताओं का भी पता चल सकता है। चंद्रमा की भूमध्य रेखा के पास की मिट्टी में इतने सारे रहस्य नहीं छिपे हैं।
इसके पहले नासा की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक नासा का अपोलो 11 मिशन में चंद्रमा से चंद्र चट्टानों को पृथ्वी पर लाया था। चंद्रमा की चट्टानों की जांच के बाद नासा ने निष्कर्ष निकाला कि इनमें पानी का कोई निशान नहीं है। इनकी जांच करने वाले नासा के वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि चंद्रमा की सतह पूरी तरह से सूखी है।
उसके बाद कुछ दशकों तक चंद्रमा पर पानी के निशान खोजने का कोई प्रयास नहीं किया गया। 1990 के दशक में, यह सुझाव दिया गया था कि चंद्रमा के अंधेरे पक्ष पर जमी हुई बर्फ़ के रूप में पानी मौजूद हो सकता है। परिणामस्वरूप, नासा के क्लेमेंटाइन मिशन, लूनर प्रॉस्पेक्टर मिशन ने चंद्रमा की सतह की जांच की और उन क्षेत्रों में हाइड्रोजन की उपस्थिति पाई जहां सूर्य का प्रकाश चंद्रमा तक नहीं पहुंचता है। इससे चंद्रमा के ध्रुवों के पास पानी मौजूद होने की संभावना को बल मिला, लेकिन निश्चित रूप से पानी का कोई निशान नहीं मिला है।
भारत ने अपने पहले चन्द्रयान1 मिशन में एक ऑर्बिटर भी भेजा था। ऑर्बिटर के साथ चंद्रयान1 ने चंद्रमा पर क्रैश लैंडिंग के लिए एक अन्य उपकरण, मून इम्पैक्ट प्रोब भी भेजा था, जब चंद्रयान1का ऑर्बिटर चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा था, तो मून इम्पैक्ट प्रोब चंद्रमा की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया।
18 नवंबर 2008 को चंद्रयान1 पर 100 किमी की ऊंचाई से मून इम्पैक्ट प्रोब लॉन्च किया गया था, 25 मिनट में इसे चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर गिराया गया। लेकिन यह लैंडर की तरह सुरक्षित लैंडिंग नहीं कर सका, हालांकि इसरो इसे नियंत्रित तरीके से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर गिराने में सफल रहा था।
मून इम्पैक्ट प्रोब पर सवार चंद्रास एल्टीट्यूड कंपोजिशन एक्सप्लोरर ने चंद्र सतह से 650 मास स्पेक्ट्रा रीडिंग एकत्र की और इस जानकारी का विश्लेषण करने के बाद इसरो ने 25 सितंबर 2009 को घोषणा की कि चंद्रमा पर पानी है। इसरो की इस घोषणा के बाद दुनिया में एकबार फिर मून मिशन की होड़ शुरू हुयी, जिसमें अमेरिका, चीन, भारत और सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस भी कूद पड़ा है।
अब देखना है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने वाला भारत पहला देश बन पाता है या नहीं, रूसी लूना25 के दुर्घटनाग्रस्त होने से यह मौक़ा अभी भी भारत के पास बना हुआ है।
यदि चंद्रयान3 दक्षिणी ध्रुव पर जमी हुई मिट्टी में पानी के निशान का पता लगाता है, तो यह भविष्य के प्रयोगों के लिए अधिक उपयोगी होगा। चंद्रमा पर पानी का पता लगने पर उससे ऑक्सीजन बनाने का विकल्प भी मिलेगा, यानी मानव जीवन की संभावनाओं को तलाशा जा सकता है। इतना ही नहीं ऑक्सीजन का उपयोग अंतरिक्ष प्रयोगों और चंद्रमा पर अन्य प्रयोगों के लिए प्रणोदक के रूप में भी किया जा सकता है।
इन सब वजहों से ही इसरो शुरू से ही चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव का पता लगाने की तैयारी कर रहा है। चंद्रयान1 और चंद्रयान2 में भी इसी तरह के प्रयास किए गए थे। अब यह चंद्रयान3 के साथ इतिहास रचने की तैयारी में है।
साभार : विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियों की वेबसाइट से।