लोहिया, नेहरू और विन्ध्य..अतीत / जयराम शुक्ल

1957 तक विन्ध्यप्रदेश की राजनीति ने विश्व का ध्यान अपनी ओर खीचें रखा था। वजह नेहरू के कट्टर प्रतिद्वंद्वी डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव व आचार्य कृपलानी ने विन्ध्यभूमि को समाजवादी राजनीति की प्रयोगशाला बना लिया था।
बारी-बारी से इन नेताओं का आनाजाना लगा रहता था। इन दिग्गजों के मुँह से निकली एक-एक बात नेहरू के खिलाफ मीडिया में सुर्खियां बनती थीं।
रीवा गोलीकांड: विश्व जनमत का आह्वान
2 जनवरी 1950 को विन्ध्यप्रदेश बचाने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन में जब गोली चली और 3 लोग मारे गए तब जेपी, लोहिया और अशोक मेहता ने बंबई से एक वक्तव्य जारी करके विश्वभर के नागरिकों को यहां हो रहे अन्याय-अत्याचार का विरोध करने का आह्वान किया।इस वक्तव्य के निशाने पर भी नेहरू ही थे। डा. लोहिया घटना के चौथे दिन बंबई से चलकर रीवा आए..और ऐतिहासिक सभा की। इसी घटनाक्रम में जगदीश चंद्र जोशी, यमुना प्रसाद शास्त्री और श्रीनिवास तिवारी युवाओं के महानायक बनकर उभरे।
सीधी-सिंगरौली के भगवान
विन्ध्यप्रदेश का विलयन रुक गया और यहा घर-घर से समाजवादी लाल टोपी पहनकर युवा समाजवाद का बाना लेकर निकलने लगे। पूरा विन्ध्य सोशलिस्ट हो गया लेकिन सीधी-सिंगरौली के वनवासियों के बीच डा. लोहिया भगवान की भाँति पूजे जाने लगे। इसकी एक बड़ी वजह चंद्रप्रताप तिवारी भी थे जो गरीबी जनता की अगुवाई करते हुए सामंतों से कहीं भी दो दो हाथ करने की चुनौती दे रहे थे।डा.लोहिया की हर यात्रा में सीधी सिंगरौली शामिल होने लगा।
जब श्रीनिवास को घने जंगल में उतार दिया
देश की राजनीति में दो ध्रुव थे पं.नेहरू और डा. लोहिया। जगदीश जोशीजी ने एक दिलचस्प घटना बताई। एक बार डा. लोहिया सिंगरौली जा रहे थे। उनके साथ जीप में मैं श्रीनिवास तिवारी, बैजनाथ दुबे, श्याम कार्तिक सवार थे। देश की राजनीति पर चर्चा चल रही थी कि बीच में श्रीनिवास टुपक पड़े और पं. नेहरू को लेकर कोई तल्ख टिप्पणी कर दी..। बस क्या था डाक्टर साहब तमतमा गए। ड्रायवर को घने जंगल में ही जीप रोकने को कहा और दपटते हुए तिवारी जी को यह कहते हुए उतार दिया..पं.नेहरू पर टिप्पणी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? पंडित नेहरू पर लोहिया ही बोल सकता है समझे..। खैर कुछ दूर जाकर जीप लौटाई, फिर से तिवारी जी को बैठाया और भाषाई मर्यादा की नसीहत देते हुए आगे बढ़े। यह पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच शिष्टाचार का चरमोत्कर्ष था।
नेहरू को गोबरी का अन्न थमाते हुए कहा..खाइए!
लोकसभा में ‘पंद्रह आने बनाम तीन आने’ की बहस का बीज भी रीवा में ही अँकुरित हुआ था। जोशीजी ने एक चर्चा में बताया था कि..डाक्टर साहब को हम लोग चाकघाट के रास्ते इलाहाबाद छोड़ने जा रहे थे। तब वे फरुखाबाद से उप चुनाव(1963) में लोकसभा के लिए चुन लिए गए थे। उनके जीतने पर अखबारों की सुर्खियों पर था कि “नेहरू सावधान तुम्हारे शीशमहल में साँड घुस चुका है’। बहरहाल लोकसभा में नेहरू का पाला लोहिया से पड़ ही गया।
दरअसल रीवा से इलाहाबाद के रास्ते एक दृष्य देखकर लोहिया ने मोटर रुकवा दी। वहां उन्होंने देखा कि एक महिला नाले में गोबरी धो रही थी। गोबरी याने कि गोबर से निकलने वाला साबुत अन्न जिसे मवेशी नहीं पचा पाते। लोहिया के पूछने पर उस महिला ने बताया कि इसे सुखाकर पीसकर रोटी बनाएगी बच्चों को खिलाने के लिए।
डा. लोहिया ने अपनी रूमाल पर गोबरी का अन्न बाँधा और दिल्ली पहुँचने पर अपने आवास न जाकर सीधे संसद पहुँचे और नेहरू को वह अन्न दिखाया तथा सदन को बताया कि इनके राज में यह खाकर जनता जी रही है। बहस आगे बढ़ी तो लोहिया ने कहा- कि आपके बंगले के कुत्तों पर जितना खर्च होता है उससे काफी कम में देश का आम आदमी जी रहा है। सदन में आधिकारिक जवाब आया कि प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन की आय पंद्रह आने है..डा. लोहिया ने कहा यह सरासर झूठ है देश का नागरिक औसतन तीन आने रोज में जी रहा है। बहस गहरी होतु गई। योजना आयोग के सदस्य आँकड़े जुटाने में लग गए। जीत डा. लोहिया की हुई। यही बहस आज भी “पंद्रह आने बनाम तीन आने” के नाम से आज भी उद्धृत की जाती है।
एक तरह से जब तक डा. लोहिया जीवित रहे विन्ध्य उनके और नेहरू के बीच पालटिकल बैटल फील्ड बना रहा।
(किस्से अभी और भी हैं)

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