देवेंद्र सिकरवार : अपनी जड़ों से भटकी हुई सभ्यता “ईरान”
ईरान की दुर्दशा का मूल कारण है अपने मूल से कटना।
ईरान पहली बार अपने मूल से तब कटा जब जरथ्रष्ट्रु ने अपने पूर्वज आर्यों के ‘बहुदेववाद’ को ठुकराकार ‘एकेश्वरवाद’ की नींव डाली।
उन्होंने वैदिक देवताओं में ‘असुर वरुण’ को ‘अहुर माजदा’ के रुप में सर्वोच्च ईश्वर घोषित कर न केवल ‘निरंकुश राजतन्त्र’ को धार्मिक आधार प्रदान किया बल्कि अपने पूर्वज आर्यों के इतिहास को अपने मुताबिक पौराणिक कथाओं में ढाल दिया जिस कारण वह अपने मूल को भूल गये।
यही नहीं इस पंथ ने उनके समाज में राजा और पुरोहित के संयोजन द्वारा जिस सामाजिक विषमता को जन्म दिया वह सातवी शताब्दी में उनकी राष्ट्रीय पहचान के पूर्णतः मिटने का कारण भी बना।
वे भूल गये कि कभी वे सप्तसिंधु में ‘पर्शुओं’ के रूप में वैदिक समाज का हिस्सा थे और दाशराज्ञ के बाद वे ‘पृथु गणों’ के साथ ईरान के पठारों की ओर चले गये थे।
सहस्त्र वर्षों बाद उनके कबीले विस्तृत हुये और उन्होंने ‘कुरुष’ (सायरस महान) के झंडे तले ईराक से मध्यएशिया तक विशाल साम्राज्य बनाया, लेकिन अपनी मूल पहचान की कीमत पर।
जब वे अपना मूल भूल गये तो उन्हें भारत के अपने बाँधवों पर आक्रमण करने में भी कोई संकोच न हुआ।
पहले कुरुष और फिर डेरियस।
उन्होंने भारत से सोना ही नहीं लिया बल्कि भारत के योद्धाओं को अपनी ओर से लड़ने पर विवश किया। थर्मोपायली के दर्रे में लियोनाइडियस के तीन सौ सिपाहियों से ये गुलाम हिंदू योद्धा भी लड़े थे। अस्तु!
दूसरा टकराव ईरान के यूनानी शासक सेल्यूकस से हुआ।
तीसरी बार कुषाणों से कनिष्क के समय हुआ।
चौथी बार चन्द्रगुप्त विक्रमदित्य के समय अप्रत्यक्ष रूप से संघर्ष हुआ जब उन्होंने अफगानिस्तान के किदार शासक को मदद देकर ईरानी सासानिदों को हराया।
इतना वैर विरोध इसलिए हुआ क्योंकि जरथ्रस्तु, जो भले ही महापुरुष थे उनके कारण पार्शव अपने मूल को भूल गये।
ईरान अपने बचे-खुचे मूल से तब कट गया जब सातवी शताब्दी के बाद उसका इस्लामीकरण हुआ।
उसके बाद ईरानियों का इतिहास भारत विरोध का ही रहा–
-नादिरशाह का हमला और दिल्ली हत्याकांड।
-शाह पहलवी का निरंतर भारत विरोध और 1971 में पाकिस्तान की मदद की गई।
-खुमेनी और खामनेई द्वारा निरंतर कश्मीर पर प्रश्न उठाये गये और भारत के मुस्लिमों पर प्रश्न उठाकर भारत की प्रभुसत्ता को चुनौती दी जाती रही है।
यह ईरान का वह संक्षिप्त इतिहास है जहां उनके दो निर्णायक मोड़ हैं।
प्रथम जब उनके यहाँ जोराष्ट्रीयन पंथ प्रचलित हुआ
द्वितीय जब उनका इस्लामीकरण हुआ।
अब ईरान उस महानता के सपने तो देखता है लेकिन उस पारसी संस्कृतिक आधार के बिना जिसके ऊपर उनकी राष्ट्रीयता का महल खड़ा हुआ था।
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ईरान की ही तरह भारत में भी मूल से कटने की सम्भावना तब जन्मी जब क्षत्रियों द्वारा उपनिषदों के माध्यम से निरंकुश राजतन्त्र की ओर ले जाने वाले ‘एकेश्वरवाद’ का जन्म हुआ लेकिन कृष्ण ने उसे करुणापूर्ण वैज्ञानिक ‘सर्वेश्वरवाद’ में बदल दिया।
इसके बाद बुद्ध के अनुयायियों ने फिर इस देश के मूल को मिटाने की कोशिश की लेकिन हिंदुओं ने बुद्ध को ही विष्णु का अवतार बनाकर अपनी बहुदेववादी परम्परा को मजबूत रखा।
मूल से विच्छिन्न होने के कारण ही ईरानी जोराष्ट्रीयन तंत्र ने बीस साल में ही इस्लाम के सामने घुटने टेक दिये लेकिन भारत के बहुदेववादी हिंदू तमाम सामाजिक विषमता के उपरान्त भी झुके नहीं और आज भी सिर उठाकर खड़े हैं।
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युद्ध तो भारत के अंदर भी राजाओं के मध्य होते रहे लेकिन किसी ने भी भारत से अलग होने का दावा न्हीं किया जबकि इस राष्ट्रीय चरित्र में आये अंतर के कारण ही दोनों आर्य शाखाओं में शत्रुता ठन गई जो आज तक जारी है।
यह शत्रुता एवं पश्चिम एशिया में शक्तिशाली बनने की ऐतिहासिक आकांक्षा तब तक बनी रहेगी जब तक कि ईरान अपने मूल को प्राप्त नहीं कर लेता।
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Note:– चित्र में पारसीकों के सबसे बड़े देवता अहुरमाजदा और हिंदुओं के देवराज इन्द्र। अधिक विस्तार से जानना है तो ‘अनसंग हीरोज: इंदु से सिंधु तक’ पढ़िए।
