प्रसिद्ध पातकी : विष्णु सहस्रनाम में योग.. शिव योगियों के ईश्वर तो कृष्ण योग के ऐश्वर्य

योग : अपने पात्र को सीधे करने की कला

माता आनन्दमयी की एक बड़ी गूढ़ वाणी है : ‘भगवान की कृपा तो बरस रही है बस हमें अपने पात्र को सीधा करना है।’ वैसे देखा जाए तो इस जगत में हमारी सारी सोच और गतिविधियां इस प्रकार की हैं कि हमने अपने पात्र को उल्टा रखा हुआ है। यानी हमारा जीवन निरंतर अर्थहीनता की ओर ही बढ़ रहा है। अब उल्टा रखे हुए किसी भी पात्र में कोई चीज कैसे डाली जा सकती है भला?

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विष्णु सहस्रनाम के बिलकुल शुरुआत में ही भगवान का योग से संबंध स्थापित कर दिया गया है :-
योगो योगविदां नेता प्रधान पुरुषेश्वर:।
नारसिंह वपु: श्रीमान् केशव: पुरुषोत्तम:।।
श्रीहरि स्वयं योग हैं। योग का अति सामान्य अर्थ जोड़ना है। कसरत करना नहीं। कसरत अर्थात आसन करना, उस योग का महज आठ बटा एक हिस्सा है। शेषावतार पतंजलि ऋषि ने योग की परिभाषा देते हुए कहा है कि चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है…‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: ’। इन चित्त वृत्तियों का निरोध न केवल आसनों से होगा, न केवल प्राणायाम से होगा और न ही मात्र ध्यान से होगा। पतंजलि के योग सूत्र में चित्तवृत्ति निरोध के लिए आठ चरणों वाली नसैनी बतायी गयी है जिसे ‘अष्टांग योग’ कहते है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। इन आठ सीढ़ियों पर चढ़कर ही योग के लक्ष्य को साधा जा सकता है। पर लोग प्राय: पहली और दूसरी सीढ़ी छोड़कर सीधे आसन एवं प्राणायाम की लाइन को पकड़ लेते हैं। इसमें आपतत: कोई बुराई नहीं है लेकिन यह आपको लक्ष्य तक नहीं पहुंचा पाएगा।
भगवान शिव को ‘योगीश्वर’ और भगवान कृष्ण को ‘योगेश्वर’ कहा जाता है। शिवजी तो योगियों के आदर्श है, इसलिए वे योगियों के ईश्वर हैं। और भगवान कृष्ण? वे योग का ऐश्वर्य हैं। अब प्रश्न उठता है कि योग का ऐश्वर्य क्या है? योग करने वाले जानते हैं कि योग करने से कुछ शक्तियाँ स्वत: प्राप्त होने लगती हैं। इन्हें ‘योगबल’ कहा जाता है। जिस प्रकार मंत्र बल, तप बल होता है, ठीक उसी तरह से योग बल होता है। इसका छोटा-सा अनुभव नियमित योग करने वालों से पूछा जा सकता है। जैसे उन्हें बैठे-बैठे कुछ विशिष्ट सुगंध महसूस होने लगती है। आगे की घटनाओं का स्वत: आभास होने लगता है आदि आदि। यह सब इस बात का संकेत है कि माँ ने अपनी सधुक्कड़ी भाषा में पात्र को सीधा करने की जो बात कही है, आप की प्रगति उसी दिशा में हो रही है। आपके भीतर ‘योगबल’ का उन्मेष हो रहा है।
यह तो बात हुई, पंतजलि योग सूत्र की। पर एक और पवित्र योग शास्त्र है, जिसे हम सनातनी परम शास्त्र मानते हैं। यह है, वासुदेव कृष्ण के श्रीमुख से निसृत भगवद्गीता। इसमें योग की बड़ी सरल और अत्यंत गूढ़ परिभाषा दी गयी है, ‘समत्वं योग उच्चते।’ यह पूरा जगत ही दो विपरीत शक्तियों के संतुलन से चल रहा है। जीवन उसी का सफल है जो इस ‘सम’ को साधने की कला को जान गया। संगीत में गायक अलग तान छेड़े हुए है, तबलावादक की ताल अलग चल रही है, सारंगी वादक अलग तार छेड़े हुए है और हारमोनियम अलग सुर लहरी बजा रहा है। पर जैसे ही चारों के बीच एक सामांजस्य, एक तालमेल बन जाता है तो राग मानों सुहागिन हो उठती है। यह संगीत का सम है। आप नदी की ऊपरी सतह पर तिरने की कला जान गये तो यह भी सम है।
तो राजन् जीवन में भी अपनी शक्तियों के न्यूनतम प्रयोग के बावजूद यदि आप इष्टतम परिणाम हासिल कर पा रहे हो तो आप जीवन में सम स्थिति में हो। ऐसे लोगों को ‘योगविद्’ कहते हैं। और भगवान कैसे हैं? वे न मात्र योगविद् हैं, वरन् योगविदों के नेता हैं। ‘योगविदां नेता’ हैं। उनमें अग्रणी हैं।
तो राजन् यदि योग को अपने जीवन में उतारना है, योगबल को प्राप्त करना है तो हमें पंतजलि ऋषि के अष्टांग योग में यम-नियम का भी पालन करना होगा और सम साधने की कला भी सीखनी होगी। तभी हमारा पात्र सीधा होगा। यह कतई मत भूलिये कि भगवान की कृपा तो निरंतर बरस ही रही है।
एकादशी की राम राम।।

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