सर्वेश तिवारी श्रीमुख : ‘दर्द’ मिला है, ‘लाश’ मिली है, यहाँ तक कि ‘सरकार’ भी वहीं से आई है.. वे ईरान में समाप्त हो गए, पर भारत में हैं…

इतिहास की किताबों में ईरान से हमारा पहला परिचय 516 ईसा पूर्व में होता है, जब डेरियस प्रथम का भारत पर आक्रमण होता है। साम्राज्य विस्तार और लूटपाट की नीयत के साथ किये गए इस आक्रमण के समय उसने पश्चिमोत्तर भारत के नगरों को ध्वस्त कर दिया। पंजाब और सिंध के हिस्से उसके कब्जे में आये और भारत ने पहली बार गुलामी का स्वाद चखा था। भारत पर पहले वाह्य आक्रमण के रूप में पढ़ते हैं हम सब…
ज्यादा पुरानी बात हो गयी न? अच्छा नया सुनिये।

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सन 1739 में दिल्ली में घुसा नादिरशाह! ईरान का ही था। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला पटका गए। उसने दिल्ली को लूटने से पहले कत्लेआम का हुक्म दिया। कुछ इतिहासकार तीस हजार हत्याएं बतातें हैं तो कुछ लाखों… हिन्नू मुसलमान दोनों मारे गए! एक दम सर्व धर्म समभाव वाला मामला… पियोर सेकुलर निकला नादिरशहवा…
उसके बाद शुरू हुई लूट… भाई साहब! दिल्ली उस तरह तो कभी न लूटी गई… साठ साल में क्या इधर वालों ने लूटा जो साठ घण्टे में नादिर लूट ले गया… तब के 70 करोड़, आज के हिसाब से लगभग पन्द्रह लाख करोड़…
लूटने के बाद नादिर को थोड़ी चुहल सूझी। उसने मुगल बादशाह रंगीला की ओर आंखें मटका कर गाया- नाच मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा… तो रंगीला बादशाह अपने ही दरबार में नाचे, और नादिर सचमुच उनपर गिन्नियां फेंकता रहा… फिर खुश हो कर बोला- जा रंगीले! जी ले अपनी जिंदगी… दिल्ली फिर से तेरी हुई… नादिर लौट गया। ईरान…
ईरान ने बहुत कुछ दिया भी है। हमारी भाषा को ईरान से कुछ शब्द मिले हैं। ‘दर्द’ मिला है, ‘लाश’ मिली है, यहाँ तक कि ‘सरकार’ भी वहीं से आई है। हमने ईरान से ही जाना ‘बेरोजगार’ होना भी कुछ होता है। ‘बेईमान’ भी वहीं से आये हैं हुजूर! वरना हमारी ओर तो इस अर्थ का कोई शब्द ही नहीं है। है क्या?
अब आप पूछेंगे कि हमने ईरान को क्या दिया है। तो भाई साहब! इस संसार में हमसे बड़ा दाता कोई है ही नहीं। आठवीं सदी के मध्य में जब कुछ नावों पर बैठ कर सौ दो सौ ईरानी परिवार भाग कर भारत आये, तो उनकी अंतिम उम्मीद थे हम। उनके सारे नाते रिश्तेदार मार दिए गए थे, ये बेचारे किसी तरह इस देवभूमि तक पहुँचे थे। आशा रही होगी कि भारत भूमि को छू लिया तो जी जाएंगे। फिर हम उन्हें निराश कैसे करते? हमने उन्हें बसने के लिए अपना दिल दिया। जमीन दी, फलने फूलने लायक माहौल दिया, प्रेम दिया… और इतना दिया कि वे हमारे ही हो कर रह गए। वे ईरान में समाप्त हो गए, पर भारत में हैं। सुखी सम्पन्न हैं… जो अपने यहाँ लाश बना दिये गए थे, वे हमारे यहाँ फले फूले… वे जमशेदजी टाटा बन गए। दादा भाई नरौजी बन गए। होमी जहांगीर भाभा बन गए, सैम मानेकशॉ बन गए…
वर्तमान राजनीति जो भी कहे, इस मिट्टी के साथ ईरान ने कभी मित्रतापूर्ण व्यवहार तो नहीं किया। हां मध्यकाल में कुछ मदारी भी आते थे ईरान से… खेल तमाशा दिखाते, चारयारी बेचते… वे जरूर मन मोहते थे…
ईरान में कुछ हो रहा है शायद। पर कोई बात नहीं, वे सामर्थ्यवान लोग हैं, आपस में फ़रिया लेंगे…

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