सर्वेश तिवारी श्रीमुख : कुंभ..!
कुम्भ!
प्रयाग के सङ्गम तट से कम लहरें आम धर्मावलंबियों के हृदय में नहीं उठ रहीं। जो गङ्गा नहा आये उनके हृदय में भी, और अभी नहीं जा सके उनके हृदय में भी… एक धारा सबके हृदय में बह रही है। बहती रही है, आदि अनादि काल से… कोटि हृदयों में न बह रही होती, तो प्रयाग में बह कर भी नहीं बहती। पश्चिम के उस प्राचीन सप्तसैंधव प्रदेश में सिंधु तो अब भी बहती ही है, पर उसके बहने का क्या ही मोल…
मैं अपनी बात करूँ तो कुम्भ को विशुद्ध लौकिक दृष्टि से देखता हूँ। इससे आगे दृष्टि जाती ही नहीं, इसी दायरे में मुग्ध हो जाता हूँ। एक सामान्य गृहस्थ के लिए एक साथ हजारों साधु संतों को देख लेना ही कोई छोटा आनन्द है क्या? जिस स्थान पर संसार के समस्त श्रेष्ठ विद्वान इकट्ठे हुए हों, उस स्थान पर शीश नवा लेना ही कम है क्या? बृहस्पति की गति, नक्षत्रों का योग या बारह वर्षों का चक्र भले समझ न आये, पर सैकड़ों पीढ़ियों से चली आ रही तिरबेनी नहाने की परम्परा समझ अवश्य आती है। उसी को निभा देना ही कम है क्या?
हम आप जिस गाँव या शहर में रह रहे हैं, वहां अधिकतक आठ दस पीढ़ियों से ही रहते होंगे। उसके पहले कहीं और, उसके पहले कहीं और… एक दो स्थानों से अधिक के बारे में तो हम जानते भी नहीं, जबकि हमारे पुरखों ने असंख्य बार गांव बदला होगा। हाँ इतना तय है कि पिछली हजार पीढियां, वो देश के किसी भी हिस्से रही हों, कुम्भ नहाने सङ्गम तट पर जरूर पहुँची होंगी। भाई साहब! वही एक स्थान है जहां हमारे सारे तार मिल जाते हैं। अब सोचिये, वहाँ पहुँचना कोई छोटी उपलब्धि है क्या? सङ्गम के जल में तलाशें तो समूचा इतिहास दिखेगा…
डेढ़ दो महीने चलने वाले संसार के सबसे बड़े मेले में जीवन का हर रंग उभरता है। उल्लास, आनन्द, भय, दुख, अवसाद… इस बार ही नहीं, हर बार… सारे भाव साथ दौड़ते हैं, पर अंततः जीतता है उल्लास! वही कुम्भ का अमृत है।
अशुभ के बाद भी शुभ ही आता है। न गङ्गा अपनी धार रोकती है, न घड़ी अपनी गति धीमी करती है, न ही संसार अपनी यात्रा को रोकता है। निरंतर दौड़ते रहना मनुष्य का चयन ही नहीं, उसकी नियति है।
हम भी निकलेंगे। ढेर सारे मित्र आ रहे हैं। सभी आठ नौ फरवरी को सेक्टर अठारह में गङ्गा महासभा के शिविर में टिकेंगे। पूज्य स्वामी श्री जितेन्द्रानन्द सरस्वती जी के पावन सानिध्य में! आदरणीय गोविंद शर्मा जी की योजना, उनका परिश्रम, उनकी अध्यक्षता… गङ्गा नहाएंगे, साथ बैठेंगे, भविष्य के लिए कुछ योजनाएं बनाएंगे, जितना सम्भव हुआ उतने गुरुजनों, संतों के आगे मत्था टेकेंगे। कुम्भ को देखेंगे, कुम्भ को जिएंगे, कुम्भ को समझेंगे…
सम्भव हो तो आइए। एक बैठक गङ्गा तट पर भी… इस प्रार्थना के साथ, कि सङ्गम की धार बनी रहे। प्रयाग में भी, हमारे हृदय में भी…
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।