देवांशु झा : कई बार तो वह पुलिसवालों के पास से यूं गुज़र जाते जैसे हवा हमें छूकर
चंद्रशेखर आज़ाद कहा करते थे कि किसी भी शहर, कसबे की धूप और हवा मुझे खतरे के संकेत देने लगती है और तब मैं वहाॅं से निकल जाता हूॅं!सच ही कहते थे वह। कई बार तो वह पुलिसवालों के पास से यूं गुज़र जाते जैसे हवा हमें छूकर गुजर जाती है। काकोरी काण्ड के बाद और अपने बलिदान से पूर्व के छह वर्षों में वह अंग्रेजों के साथ एक अबूझ दुस्साहस से खेलते रहे। हॅंसते भी रहे कि तुम मुझे नहीं छू सकते!


आज़ाद अक्सर कहते कि उनकी बमतुल बुखारा(माउजर) जब तक उनके पास है तब तक उन्हें कोई जीवित नहीं पकड़ सकता! पंद्रह गोलियाॅं पुलिसवालों पर दागूंगा और सोलहवीं से अपनी खोपड़ी उड़ा लूंगा!
उन्हें अपने अंत का कोई दृढ़ विश्वास था। वह जानते थे कि मृत्यु स्वयं उनके ही हाथों से आएगी। कोई बर्तानवी जीते-जी उन्हें छू न सकेगा । साढ़े चौबीस वर्ष की आयु में वह इस संसार से विदा हुए। पंद्रह वर्ष की कच्ची उम्र में नंगी देह पर बेंतें खाईं। बहुत छोटी आयु से अत्यंत विद्रोही रहे आज़ाद को उन बेंतों की चोट ने बहुत तपाया था। आत्मा उनकी बेचैन, व्याकुल हो उठी थी। बेंतों की मार सहने के बाद उनके भीतर कोई अखण्ड ज्वाला धधकती रही। आज़ाद की सान्द्र ऑंखों में वह ताप दिखाई देता है। यद्यपि करुणा उन ऑंखों का मूल स्वर है।
किसी फिरंगी को अत्याचार करते हुए देखकर वह खौल उठते। एक बार वाराणसी रेलवे स्टेशन पर विलायती सिपाही ने सिगरेट पीकर धुआं एक भारतीय महिला के मुॅंह पर छोड़ दिया। उस समय आज़ाद वहीं खड़े थे। उन्हें कुछ साथियों के साथ गुप्त अभियान पर जाना था। फिरंगी को भारतीय महिला के मुॅंह पर धुआं छोड़ते देखकर वह अपनी वर्तमान दशा भुला बैठे। उन्होंने सिपाही को धर कर पटक दिया। स्टेशन पर अफरातफरी मच गई। लोग खींचते रहे लेकिन आज़ाद का बाहुकण्टक छुड़ाए न छूटा। जब लोगों को लगा कि विलायती मारा जाएगा तब बड़ी प्रार्थना, चीख चिल्लाहट के बाद आजाद ने उसे छोड़ा।
जब कभी साथी क्रांतिकारी उनसे विवाह की बात छेड़ते तो वह हॅंसकर अपनी बमतुल बुखारा दिखलाते कि विवाह तो इससे कर चुका हूॅं। हाॅं, एक आध बार उन्होंने यह भी कहा था कि जीवनसाथी हो तो ऐसी कि बंदूक में गोलियाॅं भर भर कर देती रहे और मैं अंग्रेजों को उड़ाता रहूॅं।
चंद्रशेखर आज़ाद अपने दल में सबसे साधारण और सबसे अनन्य व्यक्तित्व के क्रांतिकारी थे। वह जिस अंध देहात की पृष्ठभूमि, विकट दरिद्रता को भोगकर आए थे, वह किसी दूसरे महान क्रांतिकारी के हिस्से में नहीं आयी। उनका अध्ययन बहुत कम था। कहने को थोड़ी संस्कृत की पढ़ाई की थी, जिसे नगण्य ही माना जाना चाहिए। परन्तु प्रत्युत्पन्नमति खूब थी उनमें। रणनीति बनाना, विकट परिस्थितियों में बच निकलना, संकट आने पर तुरंत निर्णय लेना, घोर कष्ट सह लेना, अन्याय का प्रतिकार करना, नेतृत्व करना, खतरे को आगे बढ़कर अपने सीने पर झेल जाना यह सब उन्हें अद्वितीय और महान बनाता था।
भगतसिंह से वह इस अर्थ में भिन्न थे कि उन्हें फाॅंसी पर झूलना स्वीकार नहीं था। फाॅंसी पर झूलना उन्हें पौरुष का अपमान लगता था। वह मानते थे कि अंतिम साॅंस तक भिड़े रहेंगे। और जब लगेगा कि अब लड़ नहीं सकते तो खुद को उड़ा लेंगे। कोई गोरा सिपाही जीते-जी उन्हें छू न सकेगा। अल्फ्रेड पार्क में पुलिस कमांडर नौट बावर ने आज़ाद को ब्रेवहार्ट कहा था। वह उनके निशानेबाजी और अदम्य साहस को देखकर दंग रह गया था। आजाद के मरणोपरांत उनका माउजर अपने साथ इंग्लैंड ले गया। वह माउजर सत्तर के दशक में यूपी सरकार के अथक प्रयास के बाद भारत लाया जा सका।
अधिकांश साथी क्रांतिकारियों ने मरणोपरांत जब दो महान योद्धाओं का आकलन किया तो स्वयं ही यह कहने को विवश हुए कि आजाद में जो ताप, दबाव और सेनापतित्व था वह किसी और में नहीं था। उनके ही साथियों ने आज़ाद के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को भगत सिंह से महत्तर बताया। वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें लठैत, गोला बम वाला बनाकर रख दिया। जिसके दो कारण स्पष्ट हैं। पहला यह कि वे अंग्रेजी जानने वाले वामपंथी नहीं थे और दूसरा यह कि उनकी नंगी देह पर पवित्र सूत्र बॅंधा रहता था यद्यपि वह जनेऊ पहने रखने के विशेष आग्रही नहीं थे।
वैधानिक चेतावनी–जियो तिवारी जनेऊधारी टाइप के पंडीजी लोगों पर मेरी कोई श्रद्धा नहीं है।
