शाकाहार-मांसाहार : दर्द से कटते पशु-पक्षी का अंतर्नाद (श्राप) जीवन में संकट लाता हैं..

कुछ विद्वान मांसाहार को सही साबित करने के लिये कुछ अधिक ही अध्यात्मिक ज्ञान का बखान करते हुए विज्ञान का भी हवाला देते हैं, तब हंसी आती है। वैसे यह पश्चिमी विज्ञान की मान्यता नहीं है कि पेड़ पौद्यों में भी जीवन होता है बल्कि भारतीय अध्यात्म दर्शन भी इस बात की पुष्टि करता है कि वनस्पतियों में भी जीवन का स्पंदन होता है। ऐसे में मांसाहारी विद्वान दावा करते हैं कि जब सब्जी या अन्य शाकाहार पदार्थों के उत्पादन, जड़ से प्रथकीकरण तथा सेवन करने पर भी अन्य जीव की हत्या होती है ऐसे में पशु या पक्षियों को मारकर खाने को ही मांसाहार मानते हुए उसे पाप कैसे माना जाये?

मज़े की बात है कि शाकाहार समर्थक भी कोई वज़नदार तर्क नहीं रखते क्योंकि इसके लिये जरूरी है कि भारतीय अध्यात्म के दो महत्वपूर्ण तत्वों योग विज्ञान तथा ज्ञान के साथ विज्ञान से परिपूर्ण श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों का अध्ययन किया गया हो। सब्जियों और पशु पक्षियों के सेवन मेें शाकाहार और मांसाहार का भेद जानने के लिये श्री मद्भागवत में वर्णित ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’ का सूत्र बहुत सहायक होता है।

जब मनुष्य और पशु पक्षियों की बात करते हैं तो उनकी सभी पांचों इंद्रियों के गुणों की सक्रियता समान दृष्टिगोचर होती है। आंख देखती है, कान सुनते हैं, मुख भोज्य पदार्थ ग्रहण करता है, देह स्पर्श करती है तथा नाक सांस लेती है और यह सभी जगह दृश्यव्य है। सभी जीव अपने अपने दैहिक अंगों से पेट भरने के लिये भोजन जुटाने की चेष्टा करते हैं जबकि वनस्पतियां चेष्टा रहित है न होकर स्थिर रहती हैं। उनको पानी तथा खाद के लिये दूसरे जीवों पर निर्भर रहना पड़ता है। जहां तक जीवात्मा का प्रश्न है तो हम उनमें उन्हीं गुणों की उपस्थिति समझें जो देह की प्रदर्शित इंदियों के साथ हमारे सामने दृष्टिगोचर होती है। अतः जड़े से प्रथक होते समय उनको न पीड़ा का अनुभव होता है न वह आर्तनाद करती हैं। इसलिये उनका भोजना सात्विक माना गया है।

किसी भी जीव की आत्मा अगर शरीर से अलग हो जाये तो उसकी स्थिति केवल इतनी रह जाती है कि उसको केवल अस्तित्व का अहसास भर होता है पर उसमें बाकी गुण भी नहीं रह जाते। हां, यह सभी गुण भी उसमें रह सकते हैं अगर व्यक्ति ने जीवन भर योग साधना की हो और उसे तत्वज्ञान हो। अंतिम समय में देहधारी देव जिस तरह का भाव लेता है वही आत्मा में जाता है। इसका आशय यह है कि जिस जीव की देह में जितनी इंद्रियां सक्रिय है उनके गुण ही उसके अंदर विद्यमान हैं। जब हम पशु पक्षियों की बात करते हैं तो देखना, सुनना, बोलना तथा अनुभव करना मनुष्यों की तरह हैं जबकि वनस्पतियों में यह इंद्रियां सक्रिय नहीं होती हैं।

अतः सब्जी काटे जाते समय न तो आर्दनाद करती है न देखती है और उसे आभास होता है जबकि पशु पक्षी कटते समय आर्दनाद करते हैं। उनका यह आर्तनाद तथा शाप उनके मांस में भी शामिल हो जाता है जोकि खाने वाले के लिये कष्टकारक होता है। दूसरी बात यह कि सब्जी या वनस्पतियों को काटा न भी जाये तो वह स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं जबकि पशु,पक्षी न काटे जाने पर अपनी आयु पूरी करते हैं। इसलिये मांसा का सेवन तामस प्रवृत्ति का माना गया है।

अगर आप किसी सामान्य मनुष्य से कहें कि पेड से सब्जी काटकर कर दे तो वह काट देगा पर आप किसी से कहें कि तोता मारकर दे तो वह ऐसा करने के बारे में सोचेगा। वजह यह कि वनस्पति आंखों से नहीं देख रही न बोल रही है पर तोता देखने, सुनने के साथ ही समझ भी रहा है। अगर कोई उसे मारेगा तो उसकी वेदना और शिकारी के लिऐ शाप का भाव उसके मन में आयेगा तो अंततः खाने वाले पर भी उसका प्रभाव होगा क्योंकि जीव की संवेदनायें वायु में विचरती हैं और अंततः शाप और आशीर्वाद का प्रभाव होता है।

मरता हुआ पशु पक्षी जब अपने बैरी को देखकर आर्तनाद करता है तो उसकी आत्मा घृणा का भाव लेकर जाता है जो उसे मारने तथा खाने वाले के लिये कष्ट पैदा करने के लिये प्रेरित करती है। वनस्पतियों के साथ ऐसा नहीं है।
दूसरी बात मांस मनुष्य पचा सकता है यह बात मांसाहारी बड़े दावे के साथ कहते हैं। इन महानुभावों को यह बात कौन बताये कि भारत ही नहीं पूरे विश्व में मधुमेह, उच्चरक्तचाप, कब्जी, गैसीय विकार से ग्रसित लोगों की संख्या आधी आबादी से अधिक है।

अगर आधुनिक प्रचार माध्यमों के सर्वेक्षणों पर यकीन किया जाये तो पूरे विश्व समुदाय में दैहिक बीमारियों से ग्रसित लोगों की संख्या इतनी अधिक है और अपने आसपास स्वस्थ लोगों को देखकर भी यह यकीन नहीं होता कि वह वाकई प्रसन्न हैं। आज के समय में मांसाहारी ही क्या शाकाहारी भोजन पचा पाना भी अनेक लोगों के लिये मुश्किल है ऐसे में मांस के सेवन के दावे मज़ाक लगते हैं।

भारतीय अध्यात्मिक विज्ञान के जानकारों को ही यह पता है कि योगासन से शाकाहारी भोजन पचाया जा सकता है पर मांसाहार से तो शरीर में विकारों का पहाड़ बन जाता है। योगियों को तो यह देखते ही पता चलता है कि कौन शाकाहारी है और मांसाहारी क्योंकि वह वार्तालाप में ही इसका अनुभव कर लेते हैं। कहते हैं न कि गुण ही गुणों को बरतते हैं। आदमी का रहन सहन, खान पान तथा संगत उसके व्यवहार पर प्रभाव डालता है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का दावा करने वाले कुछ लोग मनुस्मृति और वेदों के उद्धरण देकर मांसाहार को उचित ठहराते हैं। दरअसल जहां सब्जी आदि न मिले वहां मनुष्य को मांस का सेवन करना बुरा नहीं है क्योंकि अपने पेट को भरना उसका पहला धर्म है। उसे जीवित रखना उसका कर्तव्य है।

मगर जहां सब्जियां और अन्न उपलब्ध हो वहां मांसाहार करना आत्मिक भ्रष्टाचार से अधिक कुछ नहीं है-खासतौर से उन लोगों के लिये जो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की राह पर चलने का दावा करते हैं। प्रसंगवश भारत की भी बात करें। भगवान की कृपा से यहां हरियाली बड़े पैमाने पर उपलब्ध है। विश्व के भूवैज्ञानिक बताते हैं कि भारत में भूजलस्तर सबसे अधिक है। ऐसे में जब खाने के लिये हरी सब्जियां, दाल तथा अन्य साधन उपलब्ध हैं वहां मांसाहार का समर्थन करना अपने आप में एक बुद्धि विलास करने जैसा ही है। ऐसे जो लोग मनुस्मृति या वेदों के उद्धरण देते हैं वह इस बात को समझें कि श्रीमद्भागवत गीता की स्थापना के बाद भारतीय समाज में उसका स्थान सवौपरि हो गया है और जैसा कि हमारे समाज की आदत है कि वह आगे बढ़ता जाता है और अपने महापुरुषों का अनुसरण करते हुए पुराने विचार त्यागता जाता है।