राजीव मिश्रा : कहीं लॉ ऑर्डर, मॉरलिटी, शर्म लिहाज नहीं है… किसी के लिए अपने किसी भी एक्शन का कोई लॉन्ग टर्म कॉन्सेक्वेंस नहीं है
कुछ दिनों पहले देख रहा था, कॉमेडी एक्टर जेसन बेटमैन की कोई एक फिल्म थी (नाम याद नहीं)… साधारण सी एक रोमकॉम ही थी. पर उसकी थीम में एक चीज थी कि दुनिया नष्ट होने वाली है…कोई एस्टेरॉयड धरती से टकराने वाला है. और सारे लोग विचित्र बिहेवियर पर उतर आए हैं. सब नशा कर रहे हैं, सेक्स कर रहे हैं, लूट मार मची हुई है… कहीं लॉ ऑर्डर, मॉरलिटी, शर्म लिहाज नहीं है… किसी के लिए अपने किसी भी एक्शन का कोई लॉन्ग टर्म कॉन्सेक्वेंस नहीं है.
यह हॉलीवुड की एक स्थायी थीम है, कई फिल्मों में यह स्थिति दिखाते हैं. और यह सामान्य और प्राकृतिक भी लगता है…यदि हमारे किसी भी एक्शन के दीर्घकालिक परिणामों का विचार नहीं होगा तो हमारा व्यवहार पशुवत हो जाएगा.
मनुष्य और पशु में यह मूलभूत अंतर है. मनुष्य लॉन्ग टर्म गोल्स के बारे में सोचने में सक्षम है… अक्सर हमारे सोच का दायरा अपने जीवन काल से परे भी जाता है. हम सिविलाइजेशनल गोल निर्धारित कर सकते हैं जो हमारे आगे की पीढ़ियों तक को प्रभावित करते हैं. यह क्षमता मनुष्य होने की परिभाषा का एक अभिन्न भाग है.
आज के हिन्दू समाज के व्यवहार में आपको यह लक्षण दिखाई देता है कि हम कहीं से भी अपने सिविलाइजेशनल गोल तय करने और उनकी प्लानिंग करने में सक्षम हैं? अपने लॉन्ग टर्म सर्वाइवल के लिए सजग हैं? इस अल्पदृष्टि दोष से पीड़ित समाज क्या मानव समाज की परिभाषा भी क्वालिफाई करता है?