देवांशु झा : सीता की अग्निपरीक्षा.. निर्दयी आत्मध्वंस में कहीं वरदान की गरिमा का प्रश्न है तो कभी जनवाद की चिन्ता

एषासि निर्जिता भद्रे शत्रुं जित्वा रणाजिरे।
पौरुषाद्यदनुष्ठेयं मयैतदुपपादितम् ।।

मैंने शत्रु को पराजित कर तुम्हें प्राप्त कर लिया है भद्रे। जिसे पौरुष से सम्पन्न करना था, वह मैंने सिद्ध किया है।

राम सीता से कहते हैं कि इस संसार को मैंने अपना शौर्य दिखलाया है। मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूर्ण कर यहाँ खड़ा हूँ। वे हनुमान, सुग्रीव, विभीषण और समस्त वानरसेना की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। राघव उनके उद्यमों के प्रति कृतज्ञ हैं। सीता ऑंसुओं से भीगती जाती हैं, राम को सुनती हैं। लेकिन तभी राम के हृदय में एक हूक उठती है। आत्मसंहार की तैयारी!

पश्यतस्तां तु रामस्य समीपे हृदयप्रियाम।
जनवादभयाद्राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा।।

राम का हृदय अपनी प्रिया को देखता है फिर जनवाद के भय से दुविधा में घिरता चला जाता है। वे जनवाद से इतने आक्रान्त हो उठते हैं कि स्वयं अपनी मर्यादा पर प्रहार कर बैठते हैं। यद्यपि वाल्मीकि रामायण को पढ़ते हुए हमें सदैव कुछ सचेत रहना चाहिए। क्योंकि वे बार-बार इंगित करते चलते हैं कि जीव की स्वतंत्र सत्ता नही होती। वह ईश्वर और काल के अधीन होता है। काल ही उसे इधर-उधर खींचता रहता है। राम भरत से वन में कह चुके हैं—

नात्मन: कामकारो हि पुरुषोयमनीश्वर:।
इतश्चेतरतश्चैनं कृतान्त: परिकर्षति ।।

यहाँ काल उन्हें पुन: खींच रहा है। वे काल से बंधे हुए हैं। काल से बंधे हुए निर्वासित राजपुत्र। लेकिन अब निर्वासन खत्म होने वाला है और अयोध्या का सिंहासन उनकी प्रतीक्षा में है। अयोध्या के इस राजा के लिए धर्म सर्वोपरि है। जनवाद की अवहेलना नहीं की जा सकती। राजा का आचरण प्रजा के लिए सर्वोच्च प्रतिमान है। वे सीता के प्रति कठोर हो जाते हैं—

प्राप्तचरित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता।
दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढ़ा।।

वे कहते हैं कि मेरे सम्मुख तुम खड़ी हो और तुम्हारे चरित्र पर लोक में संदेह है। यद्यपि तुम्हारी उपस्थिति किसी कमजोर नेत्र वाले व्यक्ति के सम्मुख दीपशिखा की तरह है तथापि मैं तुम्हें कैसे स्वीकार करूँ ! अनन्तर वे कठोरतर हो जाते हैं और सीता से कहते हैं कि तुम दशों दिशाओं में कहीं भी जा सकती हो।अपनी इच्छा से किसी भी पुरुष का वरण कर सकती हो। वे अपने कुल की मर्यादा का उदाहरण देते हैं। राम के लिए वह मर्यादा महत्वपूर्ण है। वे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते जिससे उन्हें लोकनिंदा का पात्र बनना पड़े। वे मानते हैं कि लोकनिंदा का पात्र कभी मुक्ति नहीं पाता।

सीता राम के कठोर वचनों को सुनकर सन्न रह जाती हैं। उन्हें लगता है कि जीवन तो व्यर्थ हो गया। मानो लतावल्लरी को किसी मदमत्त हाथी ने रौंद डाला हो। वे कोपाकुल उत्तर देती हैं:

किं मामसदृशं वाक्यमीदृशं श्रोत्रदारुणम् ।
रूक्षं श्रावयसे वीर प्राकृत: प्राकृतामिव ।।

मदधीनं तु यत् तन्मे हृदयं त्वयि वर्तते।
पराधीनेषु गात्रेषु किं करिष्यामनीश्वरी।।

आप मुझ से ऐसे वाक्य कह रहे ! यह कैसा दारुण है ! मेरा हृदय मेरे अधीन है। उस हृदय में केवल आप ही रहते हैं। शरीर मेरा पराधीन है। उसे किसी धृष्ट ने छू लिया तो मेरा क्या दोष? वे व्याकुल हो उठती हैं। दुख का लावा उनके हृदय से बहने लगता है—

त्वया तु नृपशार्दूल रोषमेवानुवर्तता।
लघुनेव मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरस्कृतम्।।

आप मेरे लिए नृपशार्दूल हैं। लेकिन आपने रोष में आकर मुझे कितना क्षुद्र बना डाला। आप ने मेरे स्त्रीत्व को इस तरह से पुरस्कृत किया है !!

अंतत: वे स्वयं को धिक्कारती हुई जलती हुई अग्निशिखा में प्रवेश कर अनाविल बाहर निकल आती हैं। तब आकाश में सीता की जयकार करने वाले देवता प्रकट होते हैं और स्वयं ब्रह्मा राम से कहते हैं कि आप विष्णु के अवतार हैं। अपने स्वरूप को कैसे भूल गए? राम उत्तर देते हैं—

आत्मनं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ।
सोहं यश्च यतश्चाहं भगावंस्तद् ब्रवीतु मे ।।

मैं स्वयं को एक मनुष्य समझते हुए दशरथ का पुत्र मानता हूँ। मैं कौन हूँ, कहाँ से और क्यों आया हूँ, यह तो आप ही जानते हैं। यानी राम यहाँ पुन: इस सत्य की स्थापना करते हैं कि राज्य से निर्वासित, वन-वन भटकने वाला राम, जिसकी प्रिया का छल से हरण हो गया, जो सागर पर सेतुबंध कर लंका आया और युद्ध लड़कर अपनी पत्नी को वापस लौटा लाया, वह कोई अवतारी मनुष्य नहीं है। है भी तो उसे ज्ञात नहीं क्योंकि वह जीव रूप में धरती पर विचरण कर रहा। और जीव हमेशा काल से बंधा रहा है। ऊपर यह लिखा जा चुका है।

सीता निष्कलंक हैं, यह लोक के सामने सिद्ध हो चुका है। वह सिद्धि ही राम का अभीष्ट है। राम की आंखों में आँसू हैं। वे कहते हैं—

अवश्यं चापि लोकेषु सीता पावनमर्हति।
दीर्घकालोषिता हीयं रावणान्तपुरे शुभा ।।

सीता दीर्घकाल तक रावण के पुर में रहने को बाध्य थीं। मुझे सीता की पवित्रता पर कभी संदेह नहीं था लेकिन लोक के सामने उसके निष्कलंक होने का प्रमाण आवश्यक था।

अनन्तर वे सीता के लिए तीनों लोकों में विशुद्ध जनकात्मजा शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं कि सीता मेरे लिए अत्याज्य है। इस प्रसंग को कुछ तटस्थता के साथ देखना आवश्यक है। जहाँ तक मेरी बुद्धि और समझ है, इसे मैं कुछ प्रश्नाकुलता के साथ विस्मित होकर देखता हूँ। वाल्मीकि रामायण को ध्यान से पढ़ने के बाद जो बात मुझे बार-बार याद आती है, वह बात है राम की धर्मपरायणता और लोक में यशोनुरूप कार्यसिद्धि की चेष्टा। वे कई बार प्रश्नों के घेरे में आते हैं। वाली वध से सीता परित्याग तक। किन्तु हर प्रसंग के पूर्वापर प्रसंगों को भी देखना उतना ही महत्वपूर्ण होगा।

यह कम विस्मयकारी बात नहीं है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम बार-बार निर्दय आत्मध्वंस करते चलते हैं। उनके सामने कभी किसी को मिले वरदान की गरिमा का प्रश्न है तो कभी जनवाद की चिन्ता। वे जब राजा नहीं होते और वनवासी होकर भटकते हैं, तब भी राजधर्म की मर्यादा से बंधे होते हैं। उनके आचरण में इसकी खोज की जा सकती है। वह कठिन नहीं है। मेरी समझ से, जिन प्रसंगों के सहारे लोग उनके मर्यादा पुरुषोत्तम होने पर प्रश्न उठाते हैं, उन प्रसंगों में वह मर्यादा वृहत्तर लोक से बंधी है। वह मर्यादा धर्म की है। राजपुत्र की है। तापस वेशधारी वनवासी राम की है। एक बार उन बड़ी मर्यादाओं पर विचार कर देखिए और सोचिए। आपके प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।

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