देवांशु झा : तुझे मोदी से कितने पैसे मिले ?
अभिशप्त जीवन की पीड़ाएं
मैं देख रहा कि धीरे-धीरे मेरे भीतर का लेखक मरता जा रहा। मन जिन विविध विषयों, भावजगत के चित्रों में रमता रहा,उनसे अब उखड़ता जा रहा। यूं मेरे लेखन को अछूत तो उसी दिन सिद्ध कर दिया गया था जिस दिन मैंने मोदी के समर्थन में पहली बार लिखा था। लेकिन अब वह पिछले कुछ बरस की नकारात्मक ख्याति अर्जित कर चाण्डाल बन चुका है। नेहरूवियन और कांग्रेसी वामपंथी ईकोसिस्टम के विकराल बरगद के नीचे छाया केवल उन्हें ही मिलती है, जो उस सिस्टम का हिस्सा होते हैं। पिछले दिनों एक स्थापित प्रकाशक ने मेरी पाण्डुलिपि के कुछ पृष्ठ पढ़कर मेरा स्वागत किया था। कहा था कि अवश्य प्रकाशित करेंगे। किन्तु जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं मोदी समर्थक हूॅं, वह मौन साध गए। मेरा लिखा निरस्त हो गया। हो सकता है, वह कहीं और जीवन पा जाय।
मैं कुछ पीछे लौटता हूॅं। एक पूरे दौर का लेखन नेहरू के प्रति दासत्व भाव से भरा हुआ था। लगभग सभी उनके प्रशंसक रहे। पल्लवित होते रहे। एकाध तो उनकी लंगोट को शिरस्त्राण बनाकर वीरगति को प्राप्त हुए। महान कवि-लेखक कहलाए। लेकिन नेहरूजी की वंदना का भाव कितना ऊंचा है! ओह! खानदानी नेहरूजी..। मोतीलाल नेहरू के पुत्र..बापू के प्रिय चेले..भारत के पहले प्रधानमंत्री… जबरदस्त अंग्रेजीदां..! आधुनिक भारत के मंदिर निर्माता! कहां नेहरूजी और कहां यह दरिद्र संघी जो घिसट घिसट कर पार्टी का कार्यकर्ता बना। फिर सचिव से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गया। अपने दम पर दो बार प्रचण्ड बहुमत से देश का प्रधानमंत्री बना। तीसरी बार भी सर्वाधिक सीटों के साथ एनडीए गठबंधन का नेता नियुक्त हुआ है। शपथ लेने को सज्ज है। लेकिन है तो भारत को ध्वस्त करने वाला ही!! क्यों?
दुर्भाग्य यह कि इस बहुमत और अपार लोकप्रियता में कोई सत्त्व नहीं है। इस प्रधानमंत्रीत्व में कुछ खेल है! कोई ईडी सीडी सीबीआई आदि-आदि! तो इस तरह भारत की जनता का ब्रेनवाश कर प्रधानमंत्री बने इस तानाशाह के पक्ष में खड़ा होने वाला नीच ही होगा! उसका समर्थक लेखन कर क्या करेगा? उसे मारो! मैं देखता हूॅं–बहुत सारे मेरे परिचित मित्र जो मन से पक्के भाजपा समर्थक हैं, इस पटल पर चुप रहते हैं। वह भी लेखन करते हैं। किन्तु जानते हैं कि समर्थन में लिखना कितना घातक हो सकता है। बुद्धिमान हैं। अन्य बड़े और विराट लोगों ने तो खैर सिद्धांत ही प्रतिपादित कर दिया है कि विपक्ष में लिखो। मेरा मन कहता है कि इस देश को नरेन्द्र मोदी की परम आवश्यकता है। जिस तरह का गिरोह देश को लूटने-तोड़ने के निरंतर षड़यंत्र कर रहा, उससे बचाए रखने के लिए प्रतिरोधी दीवार की आवश्यकता है। वह दीवार मोदी ही बन सकते हैं। मुझे इस बात का रत्ती भर भ्रम नहीं कि मैं उनके पक्ष में लिखकर कोई महान कार्य कर रहा। मुझसे बड़े देश सेवकों की बहुत बड़ी संख्या है। सत्य तो यही है कि मैं कोई देश सेवा कर ही नहीं रहा। यही दो-चार अक्षरों की आहुति दे रहा।
मैंने कुछ लोगों को गजब की पलटी मारते हुए देखा। पिछले चार पांच बरस में उन्होंने जो नटक्रीड़ा की है, वह विस्मयकारी है। वे समझदार थे। उन्होंने समय रहते भांप लिया कि दक्षिणपंथ के समर्थन में लिखने का अर्थ अकादमिक मृत्यु है। उन्होंने बड़ा सुगम्य, स्वीकार्य पथ चुना। पहले वह गांधीवादी हुए अब राहुल गांधीवादी हो चले हैं। अब उन जैसों को यह आभास होने लगा है कि उनका और देश का उद्धार वही कर सकते हैं। वे तेज गति से बढ़ रहे। पीड़ा उनमें बहुत है कि देश गर्त में जा रहा। मुझ में भी अपार पीड़ा है। मैं भी सोचता हूॅं कि देश गर्त में न जाय। हमारे उधर कहते हैं: कोय काहू में मगन कोय काहू में मगन! जिसकी जैसी बुद्धि वैसा उसका काम। मेरी बुद्धि छोटी इसलिए काम भी छोटा और लेखन तो अनिवार्य रूप से छोटा। परन्तु यह सब चलता रहेगा। इसे चलाए रखना होगा। कुछ उदासी और टूटन के साथ भी लिखना होगा।
मेरे पास कोई लेखकीय स्वतंत्रता नहीं है। आंतरिक जीवन का संघर्ष भी असाधारण है इसलिए बाहर-भीतर दोनों से लड़ भिड़ रहा हूॅं। मैंने कुछ चालाकी से काम लिया होता तो मेरी भी दो-चार पुस्तकें बड़े प्रकाशनों से छप चुकी होतीं। मैं रह गया बिहारी मूर्ख! मुझे इन सब बातों का पछतावा नहीं होता। कभी-कभी मन दुखता है। अवश्य दुखता है कि हम कैसे अकादमिक असुरों से घिरे हैं जिन्हें अपने महान होने का दंभ है। जिन्होंने छूत अछूत का पट्टा टांग रखा है। मुझे इस बात का अफसोस अवश्य है कि दक्षिणपंथ में कुछ बड़े और प्रभावशाली लोगों ने इस कालखंड में अपना चेहरा चमकाने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। वे चाहते तो एक समानांतर बौद्धिक मंच खड़ा कर सकते थे। जहां कुछ लिखने वालों के लिए सम्मानजनक स्थान होता। उनकी पुस्तकें प्रकाशित होतीं। कितने ही लोग बढ़िया लेखन कर रहे। खैर, सभी अपनी लड़ाई लड़ें। मुझे अपनी लड़ाई लड़नी होगी। इस तुच्छ और घृणित आरोप के साथ लड़नी होगी कि तुझे मोदी से कितने पैसे मिले? मन हाहाकार कर उठता है। फिर खुद को समझाता हूॅं कि मैं कौन? लोगों ने तो राम तक को नहीं छोड़ा।
प्रिय कवि की पंक्तियां ध्यान में आती हैं:
रावण,अधर्मरत भी,अपना,मैं हुआ अपर—
यह रहा शक्ति का खेल समर, शंकर शंकर!
