डाॅ.चन्द्र प्रकाश सिंह : संन्यासी राजा से भी अधिक अधिकार की अपेक्षा करे..सन्यास का पतन…
क्या शास्त्रों में संन्यास का ज्योतिष के साथ कोई सम्बंध बताया गया है? क्या संन्यास के बाद लौकिक जगत का कोई कर्म और संस्कार शेष रहता है, जिसे पूरा करने के लिए मुहुर्त देखने की आवश्यकता पड़े? संन्यास तो परिव्रज्या से प्रारम्भ होता है और परिव्रज्या के विषय में जाबालोपनिषद में यह कहा गया है “यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।” अर्थात जब वैराग्य हो जाए तभी संन्यास ले लेना चाहिए।
इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है-
प्रव्याज्यं नाम संन्यासः । संन्यासं कदा कुर्यात् ? उत्तरायणे वा ? दक्षिणायने वा ?शुक्लपक्षे वा ? कृष्णपक्षे वा ? दिवा वा ? रात्रौ वा ? इति अनेके पृच्छन्ति । एतेषां सर्वेषां प्रश्नानाम् अयं मन्त्रः सुलभतया सुन्दरतया च उत्तरं ददाति । संन्यासो नाम
अहङ्कारममकारत्यागः, संन्यासो नाम अध्यासत्यागः ।संन्यासस्य तिथिवारनक्षत्राणि
न मुख्यानि ॥
प्रव्रज्या का नाम ही संन्यास है। संन्यास कब लेना चाहिए? उत्तरायण में या दक्षिरायण में? शुक्ल पक्ष में या कृष्ण पक्ष में? दिन में या रात्रि मे? ऐसे अनेक प्रश्न पूछे जाते हैं।
इन सभी प्रश्नों का सुलभ और सुंदर उत्तर देते हैं। संन्यास अहंकार और ममकार यानी यह मेरा है इस भावना का परित्याग है। संन्यास मिथ्या को सत्य समझने के भ्रम का परित्याग है। संन्यास के लिए तिथि, वार, नक्षत्र मुख्य नहीं है।
जब सबका भेद मिट गया तो तिथि, वार और नक्षत्र का भेद कहाँ से? यदि कोई संन्यासी ब्रह्म चिन्तन के स्थान पर मुहूर्त का चिन्तन करने लगे तब वह भाव और कर्म के व्यवहार से नहीं केवल रूप से संन्यासी है। मुहूर्त चिन्तन लौकिक जगत के ज्योतिषाचार्यों का कार्य है पारलौकिक ब्रह्म में रमे संन्यासी का नहीं।
यह विडम्बना है कि आज अभिधान अपने अर्थ खो चुके हैं, इसलिए व्यवस्थाएं अपना स्वरूप खो चुकी हैं। संन्यासी राजा से भी अधिक अधिकार की अपेक्षा करे, विरक्त की गृहस्थ से भी अधिक अनुरक्ति हो, संन्यास अपने प्रकटीकरण के लिए भावाचरण की अपेक्षा छत्र, चँवर और सिंहासन जैसे प्रतीकों का अवलम्बन लेने लगे, संन्यासी भाव जगत के अधिकार की अपेक्षा सत्ता और सम्पत्ति के अधिकार की बात करने लगे तब यह संन्यास का पतन है।
प्रतीक जब आचारण का परित्याग कर दें तब उसी प्रकार मिथ्या हो जाते हैं जैसे रस्सी में सांप और सीप में रजत का भ्रम होता है।प्रतीकों के आधार पर तत्वविहीन विकृतियों को ढोनेवाला समाज मृगमरीचिका से प्यास बुझाने की अपेक्षा रखने वाले जीव की तरह अतृप्त और व्याकुल ही रहता है, इसलिए जो भी मिथ्या हो उसका परित्याग करना ही उचित है।
साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह
