पंकज झा : विरोध करके गोबर को गणेश मत बनाइये
हमने विरोध अच्छी तरह से सीख लिया है, उपेक्षा नहीं सीख पाये अभी तक। वामी आपको विरोध से नहीं मारते, उपेक्षा से मार देते हैं।
आप ध्यान दीजिये। जब तक आपने स्वयं को अतिरिक्त शक्तिशाली नहीं बना लिया, तब तक वे आपको विरोध के योग्य भी नहीं समझते थे। उन्होंने अपने विरोधी भी स्वयं ही पैदा किए थे, जिससे नूराकुश्ती कर वे विरोध का स्थान भी हड़प सकें।
बांग्लादेश के वर्तमान चुनाव को देखिए। वहां जिसे भी जीतना था, वह अंततः ‘हसीना’ का ही होना था। इससे लोकतंत्र का भ्रम भी बना रहा और हसीना मान भी जायेगी। समझे?
या चीन की तरह कि वहां इतना अधिक उदार लोकतंत्र है कि वहां के नागरिक जिसे चाहे चुन सकते हैं। शी, जिन या पिंग में से वे किसी को भी अपना राष्ट्रपति बना सकते हैं।
मतलब यह कि लोकतंत्र का भरम भी कायम रहे और आप ही आप रहें, इसके लिए आपको अपना विरोधी भी स्वयं ही पैदा करना होता है जो वामपंथियों की तरह नूराकुश्ती करते रहें। ‘हसीना’ का शासन कायम रहे और वास्तव में जो विरोधी हो सकते हैं, वे उपेक्षा का शिकार रहें। ‘शिकार’ की प्रशंसा भी करते रहें कि बड़े ही महान संत हैं वे। दो सीटों से संतोष किया किंतु चिमटा से नहीं छूआ। एक वोट से हार गये किंतु ….
सो, अपने वास्तविक दुश्मनों की पहचान कर उसकी उपेक्षा कीजिये। यह सीखिए दुश्मनों से। जान बूझ कर मैं ‘दुश्मन’ शब्द उपयोग कर रहा हूं, विरोधी नहीं।
अभी हम क्या करते हैं? किसी दुश्मन ने कुछ लिख दिया चार लाइन, आप पीछे पड़ गये उसके। विरोध कर कर के गोबर को गणेश बना दिया। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये। हर रचा का जवाब कभी भी रच कर नहीं दिया जा सकता। ऐसा होता तो शिशुपाल की अभिव्यक्ति का जवाब कृष्ण केवल अभिव्यक्ति से देते रहते! ऐसा नहीं होता है।
किसी ने कुछ ऐसा रचा जो आपके लिये गाली की तरह हो, तो उसकी लगातार उपेक्षा कीजिये। और अगर स्थिति विरोध के लायक आ ही जाय, तो वह कीजिये जैसा कृष्ण ने किया। चतुर्वेदी को चौपाया बना देने लायक स्थिति हो, तो विरोध करें। अन्यथा वैसे ही छोड़ देना चाहिये गंदगी में, जैसा सूअर से हम कुश्ती नहीं लड़ते।
… या फिर विरोध कीजिये तो ऐसा विरोध कीजिये कि उसे अपने रचने पर क्या, पैदा होने पर ही शर्म आये। बीच वाला मामला आपका बड़ा खराब है मिस्टर हिन्दू। जात बिल्कुल गवाइये, किंतु भात खा कर।
समझे?