कमलकांत त्रिपाठी : अध्याय-01 विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक

ऐसा क्यों हुआ कि इस देश के एक ही इतिहास पुरुष को कुछ लोग नायक तो कुछ प्रतिनायक समझते हैं? और बाक़ी लोग भ्रमित होकर इधर से उधर लुढ़कते रहने के लिये नियतिबद्ध हैं? क्या हमारा इतिहास-बोध इतना खंडित और निष्ठाहीन है कि अकादमिक तटस्थता और विश्वसनीयता हमारी अंतिम प्राथमिकता हो गई है? तथ्य तो तथ्य होते है, वे बस घटित होते है, न उनका कोई पक्ष होता है, न विपक्ष। होता क्या है कि हम किसी पूर्वनिर्धारित अजेंडे के तहत असंवेदनशील ढंग से कुछ तथ्यों की अवहेलना कर देते हैं या उनपर तिर्यक्‌ रोशनी डालकर उन्हें सत्वहीन बना देते हैं, जब कि कुछ अन्य तथ्यों को सायास चमकाकर पेश करते हैं।

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फिर तो हमारी सारी बौद्धिक क्षमता तथ्यों की मनमानी व्याख्या पर ख़र्च हो जाती है। फलस्वरूप हमारे उपक्रम का हासिल अज्ञान और अपरिचय का अँधेरा दूर करने के बजाय उसे और गाढ़ा करने का काम करता है। इस तरह भ्रम का शमन नहीं होता, वह विद्वेषपूर्ण घृणा में बदल जाता है, या नायकपूजा का रूप ग्रहण कर लेता है।

शुरू से शुरू करते हैं।

विनायक सावरकर (28.5.1883—26.2.1966) के पिता दामोदर पंत सावरकर एक सुशिक्षित, अनुशासनप्रिय, आत्मसम्मानी और अध्ययनशील व्यक्ति थे। आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा के बावजूद भारतीय वाङ्मय में उनकी असाधारण गति थी। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के प्रशंसकों में थे। विनायक सावरकर की माँ राधाबाई एक प्रियदर्शिनी, स्नेही और कुशल गृहणी थीं। विनायक तीन भाइयों और एक बहन में दूसरे क्रम पर थे। बड़े भाई गणेश (बाबाराव) सावरकर भी अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध हुए, वे विनायक से पहले अंडमान जेल पहुँच गये थे। विनायक के बाद उनकी बहन मैनाबाई, फिर छोटे भाई नारायण सावरकर थे जो एक दंत-चिकित्सक बने।

चितपावन ब्राह्मण दामोदर सावरकर के पूर्वज कोंकण से आकर नासिक के एक गाँव ‘भागुर’ में बस गये थे। पांडित्य के चलते उन्हें पेशवा-शासन के क्षरण के दौर में एक गाँव (रहुरी या राहुरी) की जागीरदारी और पालकी–यात्रा का सम्मान मिल गया था। पेशवा शासन में चितपावन या कोंकणस्थ ब्राह्मणों की विद्वत्ता या सैन्य योग्यता के आधार पर उन्हें छोटी-बड़ी जागीरें मिलना इतिहास-सिद्ध तथ्य है।

छ: वर्ष की उम्र में विनायक की शिक्षा का आरंभ भागुर के ग्रामीण स्कूल से हुआ। प्राथमिक शिक्षा के बाद, दस साल की उम्र में विनायक हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए बड़े भाई गणेश के साथ नासिक गये। दुर्योग से उन्हीं दिनों हैज़े से माँ राधाबाई का असमय देहांत हो गया। माँ से बेहद जुड़े हुए विनायक इस क्षति से अतिशय आहत हुए। और यहीं से दोनों सावरकर बंधुओं की क्रांतिकारी निर्मिति शुरू हुई।

1896 में पूना और उसके आसपास के इलाक़े में प्लेग फैल गया। महाराष्ट्र पहले से ही दुर्भिक्ष से जूझ रहा था, अब प्लेग से और उसकी रोकथाम के लिए लगाई गई ब्रिटिश सेना की क्रूर और असंवेदनशील कार्रवाइयों से भी जूझने लगा। बेहद हृदयहीनता के साथ लागू किया गया क्वॉरन्टीन, अस्पतालों में प्लेग के मरीजों के साथ पशुवत्‌ व्यवहार, प्रभावित बस्तियों को वहाँ के लोगों की गृहस्थी के सारे सरोसामान के साथ जलाकर ख़ाक़ कर देना, सभी भारतीयों को जंगली और अंग्रेजों के स्वास्थ्य के लिए ख़तरनाक समझना–अंग्रेजों के लिए आम बात थी। फ़रवरी 1897 में एक आई सी एस अधिकारी वॉल्टर चार्ल्स रैंड की नियुक्ति प्लेग कमिश्नर के रूप में हुई। वह धौंस जमाकर काम लेनेवाला, एक निरंकुश और निकम्मा अधिकारी था। बहुत संभव है, प्रशासन की निगाह में रैंड के लिये यह दंडात्मक तैनाती (punishment posting) रही हो। उसके आने से माहौल और बिगड़ गया। लोकमान्य तिलक ने अपने मराठी समाचारपत्र ‘केसरी’ में एक स्वलिखित आलेख छापा (4 मई 1897) जिसमें उन्होंने लिखा—बीमारी तो एक बहाना है, वस्तुत: सरकार लोगों की आत्मा को कुचलना चाहती है। उन्होंने आगे लिखा, मिस्टर रैंड अत्याचारी हैं और वे जो भी कर रहे हैं, सरकार की सहमति से कर रहे हैं। लिहाज़ा, सरकार के पास राहत की गुज़ारिश के लिए अर्ज़ी देना व्यर्थ है।

क्रांतिकारी धारा की शुरुआत महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी के अंतिम चरण में, बंगाल से भी पहले हो गई थी। और इस दिशा में पहला ऐतिहासिक क़दम उठाया था तीन चापेकर बंधुओं ने।

विनायक सावरकर का क्रांति-उत्प्रेरण: चापेकर बंधुओं का आत्मोत्सर्ग

चापेकर तीन भाई थे–दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव। इनके पिता हरि पंत चापेकर पूना के पास चापा, चिंचवाड में रहते थे और महाराष्ट्र के प्रसिद्ध कीर्तनकार थे। जब पिता कीर्तन करते तो दामोदर और बालकृष्ण उनके साथ वाद्य बजाते थे। पर तीनों भाइयों की दिलचस्पी कीर्तन के बजाय कुश्ती और कसरत में अधिक थी। दामोदर ने एक अखाड़ा भी खोल रखा था। वे सेना में भरती होना चाहते थे‌। पर उन दिनों ब्रिटिश सेना में चितपावन ब्राह्मणों की भरती पर पाबंदी थी, अंग्रेजों में यह धारणा घर कर गई थी कि चितपावन ब्राह्मणों में बग़ावत की सहज प्रवृत्ति होती है। फिर भी दामोदर ने प्रयास किया और असफल रहने पर अपने अख़ाड़े के माध्यम से तरुण देशभक्तों का एक जत्था खड़ा किया। हथियारों का भी जुगाड़ हुआ और बिना सेना में भरती हुए, जितना सैन्य-प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता था, प्राप्त किया गया। इन युवकों की भावना यही थी कि अंग्रेजों को शक्ति-प्रयोग द्वारा देश से बाहर निकाल दिया जाए। उन्हें विश्वास था कि यह सम्भव है।

रैंड के प्लेग कमिश्नर बनकर आने के बाद विद्रोह की इस भावना में उछाल आ गया। जो काम सहूलियत के साथ, आसानी से हो सकता था, बदमिज़ाज रैंड आदतन उसे सख़्ती और ज़्यादती से करता था। लोग उसे सार्वजनिक शत्रु के रूप में देखने लगे। 14 जून 1897 को शिवाजी का अभिषेकोत्सव मनाया गया। 15 जून को उसका विवरण देते हुए तिलक ने अपने समाचारपत्र केसरी में ‘शिवाजी की उक्तियाँ’ शीर्षक से कुछ पद्य छापे। बाद में उसी के आधार पर पुलिस ने आरोप लगाया कि इन उक्तियों के बहाने तिलक ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़काया।

22 जून, 1897 को महारानी विक्टोरिया के 60 वें राज्याभिषेक दिवस पर पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में हीरक जयंती मनाई जा रही थी। उस दिन पूना में अग्रेजों के लिए जश्न का माहौल था। रात को रोशनी हो रही थी और आतिशबाज़ी चल रही थी। दो गोरे अधिकारी–मिस्टर रैंड और लेफ़्टीनेंट एयर्स्ट–मस्ती में झूमते गणेशकुंड की ओर से चले आ रहे थे। तभी दो गोलियाँ चलीं और दोनों ढेर हो गये। निशाने इतने अचूक थे कि दोनों की तत्काल मृत्यु हो गई।

प्रकृति में गुण-अवगुण साथ रहते हैं। चापेकर अखाड़े के ही सदस्य दो भाई, गणेश शंकर द्रविड़ और नीलकंठ द्रविड़, ने बीस हज़ार रुपये के लोभ में मुख़बिरी की और दामोदर चापेकर गिरफ़्तार हो गए। बालकृष्ण फ़रार होने में सफल रहे। दामोदर ने अदालत में क़बूल किया कि रैंड की हत्या उन्होंने ही की और जान-बूझकर की। उद्देश्य बताया, आर्य भाइयों में गुलामी और अत्याचार के ख़िलाफ़ विद्रोह की लहर पैदा करना। दामोदर चापेकर को फाँसी की सज़ा सुनाई गई।

तब तक केसरी के लेख के आधार पर राजद्रोह के आरोप में लोकमान्य तिलक भी गिरफ़्तार हो चुके थे (जिसमें उन्हें 18 महीने की सज़ा हुई)। फाँसी का इंतज़ार करते दामोदर ने तिलक के पास ख़बर भेजी कि अपनी गीता की प्रति भेज दें। लोकमान्य ने अधिकारियों की अनुमति से अपने हस्ताक्षर के साथ गीता की प्रति भेज दी। फ़ांसी के पहले, दो दिनों तक दामोदर चापेकर गीता के एक ही श्लोक की आवृत्ति करते रहे—

देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ (2.13)

[जिस तरह शरीरधारी (आत्मा) इस शरीर में बाल्यावस्था से यौवनावस्था और फिर वृद्धावस्था को प्राप्त होती है, उसी तरह (मृत्यु होने पर) दूसरे शरीर में चली जाती है। धीर मनुष्य इससे मोह को नहीं प्राप्त होता।]

यही श्लोक पढ़ते हुए दामोदर चापेकर 18 अप्रैल 1898 को फाँसी के तख़्ते पर चढ़ गये।

दूसरे भाई बालकृष्ण चापेकर पूना से भागकर निज़ाम हैदराबाद की रियासत में भूमिगत हो गये थे। लोकमान्य को सूचना मिली कि बालकृष्ण के पास खाने को कुछ नहीं है। उन्होंने हैदराबाद रियासत के मुख्य न्यायाधीश केशवराम कोरटकर के माध्यम से साढ़े सात हज़ार रुपये भिजवाये। कोरटकर नरम दल के गोखले के अनुयायी थे किंतु उन्होंने रुपये बालकृष्ण तक पहुँचा दिये। बाद में कोरटकर ने लिखा–मुझे लोकमान्य का यह पैग़ाम पाकर आश्चर्य हुआ पर मैंने उनके द्वारा दिया गया काम पूरा किया।

बालकृष्ण अधिक दिन तक हैदराबाद रियासत में भूमिगत नहीं रह सके। वे लौटकर महाराष्ट्र आये और गिरफ़्तार हो गये।

तीसरे भाई वासुदेव चापेकर पर कोई केस नहीं था। पर कुछ ऐसा साक्ष्य मिल गया कि वे भी हत्या की वारदात के समय मौजूद थे। इसी आधार पर पुलिस ने तय किया कि वासुदेव पर दबाव डालकर उन्हें बालकृष्ण के ख़िलाफ़ सरकारी गवाह बना लिया जाए। बहुत सोचने-विचारने के बाद वासुदेव को एक युक्ति सूझी और वे सरकारी गवाह बनने को तैयार हो गये। ‘सरकारी गवाह बन जाने’ से उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया गया।

8 फ़रवरी 1899 की रात। सदाशिव पेठ, पूना। घुप अँधेरा। दो पंजाबी नौकर द्रविड़ बंधुओं के घर के सामने आकर रुके। उसे खटखटाया। द्रविड़ बंधु पूरी सावधानी बरतते थे। गणेश शंकर ने भीतर से पूछा—तुम लोग क्या चाहते हो? बाहर खड़े दो में से एक नौकर ने कहा—‘पुलिस के हाकिम मिस्टर ब्रीन ने आप दोनों को तुरंत बुलाया है।‘ पुलिस के पिट्ठू पुलिस का नाम सुनकर कैसे टाल सकते थे! वे चलने को तैयार होने लगे लेकिन सावधानी फिर भी बरती। बोले—तुम लोग चलो, हम आ जायेंगे। दोनों नौकर वहाँ से हट गए किंतु पास ही छिपकर खड़े हो गये। कुछ देर बाद द्रविड़ बंधु निकले और क़रीब सौ गज़ चलकर जैसे ही सड़क पर मुड़े, उन पर गोलियाँ बरसने लगीं। दोनों ख़ून से लथपथ होकर गिर पड़े। दोनों नौकर ग़ायब। दूसरे दिन अस्पताल में दोनों द्रविड़ बंधु चल बसे।

दो नौकरों में एक थे वासुदेव चापेकर और दूसरे उनके मित्र, महादेव रानाडे। मृत्यु के पूर्व दूसरे द्रविड़ भाई नीलकंठ के बयान से दोनों गिरफ़्तार हो गये।

दोनों चापेकर बंधु बालकृष्ण और वासुदेव तथा महादेव रानाडे मई 1899 में फाँसी पर लटक गए। तीनों चापेकर बंधु देश के लिए शहीद हो गये।

इस बीच विनायक सावरकर नासिक में चेचक से पीड़ित होने पर अपने गाँव भागुर आ गये थे। वहीं उन्हें तीनों चापेकर भाइयों के बलिदान की ख़बर मिली। वे सन्न रह गये। कुछ देर बाद अपने को सँभालकर उठे और घर में प्रतिष्ठापित दुर्गा की मूर्ति के सामने पहुँचे। प्रतिज्ञा की कि चापेकर बंधुओं के अधूरे लक्ष्य को पूरा करेंगे और इसके लिए अपनी सबसे प्रिय वस्तु जान देनी पड़े तो वह भी देंगे। एक रात जगकर उन्होंने चापेकर बंधुओं की वीरगति पर गाथागीत (ballad) लिखा जिसकी अंतिम पंक्तियों का गद्यानुवाद होगा—“तीन का क्या, हम सात भी होते तो सातों हवनकुण्ड में अपना शिर चढ़ा देते। हे माँ, तेरी मुक्ति के लिए हमें स्वयं को होम करने का अवसर मिला तो वह हमारे जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता, सबसे बड़ी सार्थकता होगी।“

महाराष्ट्र के प्लेग ने 1899 में विनायक सावरकर के पिता और चाचा की भी बलि ले ली। विनायक के छोटे भाई नारायण भी प्लेग से ग्रस्त हो गये। उनकी देखभाल में लगे विनायक के बड़े भाई गणेश (बाबाराव) भी प्लेग की चपेट में आने से नहीं बचे। चारों ओर प्लेग का कहर टूट रहा था। किशोर विनायक के लिए बहुत कठिन समय था। पिता गये, दोनों भाइयों को भी कुछ हो गया तो क्या होगा! इस त्रासद स्थिति को विनायक ने अकेले झेला, गणेश की युवा पत्नी तक को ख़बर नहीं लगने दी। अंतत: दोनों भाई स्वस्थ होकर घर वापस आ गये।

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