सुरेंद्र किशोर : गोदी मीडिया का एक पक्ष यह भी

बहुत पहले की बात है।
बिहार से एक केंद्रीय मंत्री को एक पत्रकार से बड़ी शिकायत थी।
वह पत्रकार दिल्ली के एक अखबार से जुड़ा था।
मंत्री के एक समर्थक ने पत्रकार को फोन किया-‘‘बहुत लिख रहे हैं,अब लिखिएगा तो (एक पत्रकार का नाम लेकर)उसी की तरह आपको भी रेप केस मे फंसा देंगे।’’
उसने अपना नाम भी बता दिया था।
उसके बाद उसी ने जब
एक बार फिर फोन किया तो पत्रकार की पत्नी ने उठाया।उसने कहा कि हम जानते हैं कि आप कहां पढ़ाने जाती हैं।आपको उठवा लेंगे।
उसके बाद उसने पत्रकार के आवास के फोन का तार तोड़ दिया ।
पत्रकार ने डी.जी.पी.को पत्र लिख कर कहा कि हमारी जान पर खतरा है।
डी.जी.पी.ने कोई सुरक्षा कर्मी तो NAHI भेजा,किंतु उस धमकी देने वाले की गिरफ्तारी के लिए उसकी तलाश शुरू करवा दी।
उस धमकीबाज KE BOSS ने तत्कालीन मुख्य मंत्री से संपर्क किया।मुख्य मंत्री ने डी.जी.पी.को निदेश दिया कि अपनी कार्रवाई जल्दी बंद करिए।बंद हो गई।
पत्रकार व मुख्य मंत्री एक ही जाति के थे।फिर भी पत्रकार की जान की चिंता नहीं की गई। उन्होंने अपनी कुर्सी की-वह बॉस सुप्रीमो का काफी करीबी था,पर,उस परिवार की चिंता व डर का अनुमान लगाइए।
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ऐसे में सत्ताधारी नेताओं के खिलाफ कैसे और कैसी पत्रकारिता होगी ?
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आज जो कुछ लोग अक्सर गोदी मीडिया का राग अलापते हैं,वे या तो निष्पक्ष पत्रकारिता के खतरे नहीं जानते या खुद निहितस्वार्थी है।कहीं और से होकर बोल रहे हैं।
इस देश ने बारी -बारी से सारे दलों को देखा है। थोड़े से अपवादों को छोड़कर सारे सत्ताधारी निष्पक्ष पत्रकारों के साथ लगभग ऐसा ही सलूक करते हैं।
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हां, कुछ वैसे पत्रकार भी होते हैं जो सत्ताधारी दलों को ख्ुाश करके कुछ हासिल करना चाहते हैं।कुछ अन्य सैद्धांतिक कारणों से किसी सत्ता का समर्थन करते हैं।अधिकतर पत्रकार लोग तो कई -तरफा दबाव में रहते हैं-सरकार,प्रतिपक्ष,अखबार के मालिक और पाठक।
पाठकों का एक वर्ग,जो वोटर भी होते हैं, यह चाहता है कि जिस सत्ताधारी नेता हम नापसंद करते हैं,उसके पास पत्रकार जाए,उसे अपनी चप्पल से पीटे और उसका विवरण अखबार में लिखे।
पर,उनमें से अधिकतर खुद जब वोट करने बूथ पर जाते हैं तो न्जति व धर्म ध्यान में रहते हैं।कई बार उम्मीदवार की ओर से आए उपहार या धमकी।
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जिस देश की अदालतों में अपवादों को छोड़कर नजराना के बिना पेशी नहीं होती।थाने में अपवादों को छोड़कर रिश्वत के बिना
प्राथमिकी दर्ज नहीं होती।
जिस देश के सरकारी दफ्तरों में अपवादों को छोड़कर घूस के बिना कोई काम नहीं होता।जिस देश के सांसदों और विधायकों के फंड का खर्च अपवादों
को छोड़कर कमीशन के बिना नहीं होता,वहां सिर्फ पत्रकारों से बहुत बड़ी उम्मीद लोग पाल लेते हैं।
मैंने दश्कों से अब तक कई नेताओं को देखा है जो एक दल में रहते हैं तो पत्रकार से कहते हैं कि हमारे दल व उसके नेता की तारीफ करो।वही नेता जब दूसरे दिन दूसरे दल में चले जाते हैं तो उस दल की तारीफ करने के लिए उसी पत्रकार से कहते हैं।ऐसा न करने वाले पत्रकार यदि दुबले-पतले हुए तब तो वे कई बार उन्हें अपमानित भी करते हैं।(अब पत्रकारों को भी शरीर से हट्ठा-कट्ठा होना जरूरी है।)
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मीडिया के मालिक,जो आम तौर पर व्यापारी होता है, का भी एक पक्ष है।
सरकार से झगड़े से उसका विज्ञापन कम होता है।उससे उसकी पूंजी डूबती है।
जब जन सेवा का वादा करके,शपथ खाकर, नेतागण अपवादों को छोड़कर , सत्ता में आते ही सार्वजनिक धन लूटने लगते हैं,तो व्यापारी ने मीडिया के रूप में कौन सा धर्मशाला खोल रखा है ?

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