देवांशु झा : हमारी चिन्ता.. हमारा धर्म…
मैं नहीं जानता-नीचे जो लिख रहा हूं, उसकी क्या अर्थवत्ता है। अगर कुछ है भी तो उस अर्थ का मूल्य कितना है। किन्तु मुझे लिखना तो होगा। बिना लिखे काम नहीं चलने वाला। मैं देख रहा हूं कि फेसबुक से लेकर सोशल मीडिया पर और आम जनजीवन में कुछ लोग निरंतर जातीय श्रेष्ठता का झंडा बुलंद करते रहते हैं। एक चिन्ता भी उन्हें सालती रहती है। अब हमारा क्या होगा। अधिकांश चिन्तित लोग ब्राह्मण और राजपूत होते हैं। यों जातिगत स्वार्थ किसी भी जाति में छटांक भर कम नहीं। बड़े बड़े राष्ट्रवादियों और हिन्दुओं को रवीश कुमार के लिए इमोश्नल होते देखा है। कुछ लोग कहते नहीं। तरघुसकी मारे रहते हैं। ब्राह्मण और ठाकुर बड़े मुखर हैं। ब्राह्मणत्व का परचम लहराने वाले प्रतिक्रियात्मक पोस्ट लिखते हैं।भीमटे अंबेडकरवादी आदि करते हुए दलितों के मानमर्दन पर उतर आते हैं। अंततः यह सिद्ध करने के प्रयास करते हैं कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं। राजपूतों का अहंकार प्रगाढ़ है। वह जातीय श्रेष्ठता का जितना है, उसे कहीं अधिक शासकीय एकाधिकार का और संपूर्ण भारतीय सभ्यता संस्कृति को शतियों से बचाने वाली एकमात्र बलिदानी जाति का भी है। इस अहंकार में वे हंसते हुए सबका उपहास करने लगते हैं। जैसे गुर्जर सम्राट या गुर्जर प्रतिहार जैसे वंश का आग्रह नहीं मानते।
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गुर्जर प्रतिहार क्षात्र धर्म का पालन करते थे। जन्मना क्षत्रिय थे या गुर्जर(आधुनिक गूजरों के पूर्वज) यह विवाद का विषय है। इस तथ्य की स्थापना मेरे लिखे का केन्द्रीय भाव नहीं है। यह एक उदाहरण भर है। कुछ लोगों में तो ऐसी दुराग्रही जातिवादिता और विमूढ़ता है कि मैं उन्हें विदा करने के लिए बाध्य हो गया। जैसे ब्राह्मणों ने ब्राह्मणत्व गंवाकर उसकी अकड़ को बचाए रखा है, उसी तरह क्षत्रियों ने क्षात्रधर्म का त्याग कर उसका चोला ओढ़े रखा है:
लड़-लड़ जो रणबाँकुरे, समर,
हो शायित देश की पृथ्वी पर,
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
भारत के उर के राजपूत,
उड़ गये आज वे देवदूत,
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण–निराला
आज यह प्रश्न मेरे मन में क्यों आया। मैं मानता हूं कि हम सभ्यता के विकट संघर्ष में हैं। संभवतः हमारे अस्तित्व का संकट इतना विकराल कभी नहीं था। यह हिन्दुओं के अस्तित्व की अंतिम लड़ाई है। इसमें हमारी विजय भारत ही नहीं पूरे विश्व के लिए एक नए मार्ग को प्रशस्त करेगी। हमारी हार भारतीय सभ्यता को लील जाएगी। प्रकारान्तर से विश्व पर उसका दुर्दम प्रभाव होगा। उस भयावहता की कल्पना भी संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए। हमारा क्या दायित्व होना चाहिए। क्या हम जातीय श्रेष्ठता का परचम लहराते हुए, एक दूसरे गाली देते हुए-लड़ते हुए नष्ट हो जाएं या हिन्दू एकता के लिए प्रयास करें। आज अगर दलितवर्ग के कुछ लोगों में हिन्दूद्वेष है या वे विषवमन करते हैं तो हमारा कर्तव्य क्या हो। हमारे पास दो रास्ते हैं। या तो हम तर्क और प्रमाण सहित उन्हें काटें।वैसा करते हुए भद्रता का त्याग न करें। तर्क करते हुए सहनशील रहें। या फिर चुप रहकर उनके आक्षेपों को सुन लें। चुप रह जाना श्रेयस्कर है। विवाद को शांत करने का सूत्र ही शांति में निहित है। आप पांच बार चुप रहेंगे या उनकी भड़काऊ टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया नहीं देंगे तो यह अत्यधिक संभावित है कि छठी बार वह कोई टिप्पणी नहीं करेगा। यह सहनशीलता और सामंजस्य की ओर ले जाने का पहला चरण होगा। यह आजमाया हुआ है।
मैं बार-बार जब कहता हूं कि बीजेपी का सशक्तीकरण या उसकी विजय वर्तमान भारत के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है तब कुछ महान लोग मुझे गुलाम, चाटुकार और मोदी के पैसे पर पलने वाला कीड़ा आदि कहते हैं। मुझे दुख होता है। परन्तु हंसी भी आती है। मैं जानता हूं, उनकी सीमा क्या है। मेरा स्पष्ट मत है कि लोकतांत्रिक लड़ाई में बीजेपी की प्रबलता और विजय ही हमें बचाए रख सकती है। उदाहरण आपके सामने है। आज का उत्तरप्रदेश देखिए और अखिलेश जी के द्वारा शासित उत्तर प्रदेश को याद कीजिए।आप देख सकते हैं कि राजदंड और धर्मदंड से क्या कुछ संभव है। बंगाल बिहार केरल और दक्षिण के राज्यों की स्थिति भी आप जानते हैं। तो ऐसे समय में हमारा कर्तव्य क्या हो। केवल हिन्दू एकता की बात ही होनी चाहिए।
जो वैमनस्य अथवा विष व्याप्त है, वह समय के साथ स्वत: बह जाएगा। काल प्रवाह के साथ कल्मष बह जाता है। जब आपके पास शक्ति होगी, वैभव होगा, शांति होगी तो आप पिछली कटुताएं भूलेंगे। यह अधिक संभाव्य है कि तभी ब्राह्मण और क्षत्रियों को उसका खोया हुआ सम्मान भी प्राप्त हो जाय। लेकिन इस तरह से लड़ भिड़कर या एक दूसरे का उपहास कर हम टूटेंगे। पराजित होकर नष्ट हो जाएंगे। जिस दिन सत्ता आपके हाथ से गयी, उसी दिन से आपके अंत का आरम्भ हो जाएगा। तब राजपूती शान और ब्राह्मणत्व का गायन सुनने वाला कोई नहीं होगा।बस रुदन होगा। कष्ट और त्रास की गहन रात्रि होगी। अंतहीन रात्रि। अपना ब्राह्मणत्व और ठाकुरत्व बचा कर रखिए। हिन्दू बनिए। हिन्दू बने रहने में ही भला है। ध्यान रहे, ऊंचे भवनों के निर्माण में बहुत झुकना पड़ता है। झुक कर ही काम करना पड़ता है। अट्टालिकाएं जिस श्रम स्वेद से बनती हैं, उसमें बड़ा विनय है। वे अकड़ से नहीं बनतीं।
जातिगत स्वाभिमान तो ठीक है। लेकिन उसे प्रचारित करते हुए उसकी सीमा का ध्यान भी हो। कभी बुद्ध का उपहास। कभी शंकर को गाली। कभी रावण का महिमा मंडन। कभी परशुराम का उग्ररूप प्रदर्शित करते हुए अशोभनीय टिप्पणियां। यह सब बंद कर दीजिए। भारत किसी जातिविशेष का बपौती नहीं है। इसे करोड़ों करोड़ जनों ने अपने रक्त अश्रु स्वेद से सींचा है। अगर आपके पूर्वजों ने कुछ श्रेष्ठ रचा या बलिदान दिया तो उसका गौरवगान कीजिए किन्तु ध्यान रहे! उस रचना या शौर्यगाथा में किसी और का योगदान भी रहा होगा। वह स्वयंभू या अपने आप में निर्मित नहीं था। राम भी केवट की सहायता से नदी पार उतरे थे। सुग्रीव हनुमान के बिना हम उनकी कल्पना नहीं कर पाते। शंकर को चाण्डाल ने ज्ञान दिया था और बुद्ध को एक साधारण स्त्री ने समझाया था कि मध्यममार्गी बनो। यह भारत भूमि अगर हमारी माता है तो उस माता का मान रखने लिए हमें अपनी क्षुद्रताओं का त्याग करना होगा।
