सुमंत विद्वांस : माई
फिल्म (वेब सीरीज): “माई” (हिन्दी)
मेरी रेटिंग: ⭐⭐⭐
पिछले दिनों मैंने नेटफ्लिक्स पर 6 एपिसोड की यह वेब सीरीज देखी। यह अपनी बेटी की हत्या का प्रतिशोध लेने वाली लखनऊ की एक मां की कहानी है। एक मित्र के सुझाव पर मैंने इसे देखा और मुझे यह सीरीज पसंद भी आई। कहानी बहुत तगड़ी है और अधिकांश अभिनेताओं का अभिनय भी बहुत बढ़िया है। अब तक मैंने जितनी भी अपराध कथाएं देखी हैं, यह उन सबसे बहुत अलग है। वास्तव में एक हत्या और फिर उसके प्रतिशोध में होने वाली घटनाएं कहानी के केन्द्र में हैं, लेकिन उसके अलावा भी इसमें कई छोटी छोटी कहानियां भी गुंथी हुई हैं जो इसे और रोचक बनाती हैं।
राइमा सेन को मैंने कई बांग्ला और हिन्दी फिल्मों में देखा है, लेकिन माई में शायद पहली बार निगेटिव रोल में देखा। हालांकि मुझे निराशा हुई क्योंकि उन्होंने अपने सारे संवाद लगभग एक ही लहजे में बोले हैं, जिनमें न कोई उतार चढ़ाव मिलता है और न गहराई। ऐसे ही एक और अभिनेता प्रशांत नारायणन हैं, जिनका अभिनय और हाव-भाव तो सशक्त हैं, लेकिन संवाद सारे एक ही लहजे वाले लगते हैं।
इनकी बजाय वास्तव में मुझे दो अन्य अभिनेताओं ने ज्यादा प्रभावित किया। अंकुर रतन और अनंत विधात शर्मा का नाम मैंने पहले नहीं सुना था लेकिन इन दोनों ने अपने अभिनय से बहुत गहरी छाप छोड़ी है। मुझे उनकी भूमिकाएं बहुत पसंद आईं।
इस फिल्म की कहानी तो अच्छी है लेकिन अंतिम दो एपिसोड थोड़े कमजोर पड़ गए। पांचवे एपिसोड में एक दृश्य है, जब एक व्यक्ति चाकू घोंपकर तीन लोगों की हत्या कर देता है। इनमें से एक को तो वह जमीन पर गिराकर बिल्कुल करीब से कई बार चाकुओं से वार करता है लेकिन मुझे अचरज हुआ कि इसके बावजूद भी उसके चेहरे या कपड़ो पर खून के छींटे बिल्कुल भी नहीं पड़ते और न ही कमरे में कहीं खून दिखाई देता है। वैसा ही एक और दृश्य संभवतः अंतिम एपिसोड में है, जब एक अन्य व्यक्ति को घर में ही चाकू से मार दिया जाता है और प्लास्टिक में लपेट कर पलंग के नीचे छिपा दिया जाता है लेकिन फिर भी फर्श पर कहीं भी खून का एक धब्बा तक नहीं दिखता।
गुंडे मवालियों वाली कहानी में गालियों का होना तो बिलकुल सही है लेकिन इस कहानी में कई बार ऐसा लगा कि कहीं कहीं जबरन गालियां घुसेड़ दी गई हैं। एक दो बार तो ऐसा भी लगा कि पिछला डायलॉग बेवजह केवल इसलिए घुमा फिराकर लिखा गया था ताकि अगले डायलॉग में जबरन यह गाली जोड़ी जा सके। कई जगह यह भी महसूस हुआ कि लेखक ने कहानी के प्रसंग या उस पात्र को ध्यान में रखकर गालियों का चयन करने की बजाय केवल अपशब्दों के अपने भंडार की विविधता दिखाने पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया है।
हिन्दी फिल्मों और वेब सीरीज में सामान्यतः जो एजेंडा वाले अनावश्यक तत्व होते हैं, उनमें से कुछ इसमें भी हैं। लेकिन उन पर मैं कुछ नहीं लिखूंगा क्योंकि जिन्हें पता है उन्हें समझाने की जरूरत नहीं है और जो अब तक भी नहीं समझ पाए हैं, वे समझेंगे भी नहीं।
इतना तो आप समझ ही गए होंगे कि यह परिवार या बच्चों के साथ बैठकर देखने वाली सीरीज नहीं है। लेकिन अगर आपको अपराध या एक्शन वाली कहानियां पसंद हैं, तो यह आपको अवश्य पसंद आएगी।
