सुरेंद्र किशोर : दो अवसरों पर सोवियत संघ ने भारत के दुश्मनों का साथ दिया था हां, बांग्ला देश युद्ध के नाजुक अवसर पर सोवियत मदद भारत को बहुत काम आई।
दो अवसरों पर सोवियत संघ ने भारत के दुश्मनों का साथ दिया था।एक दफा पाकिस्तान का दूसरी दफा चीन का।
हां, बांग्ला देश युद्ध के नाजुक अवसर पर सोवियत मदद भारत को बहुत काम आई।
कुछ अन्य अवसरों पर भी सोवियत मदद से भारत को राहत मिली।
किंतु यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि सोवियत संघ व रूस ‘सभी मौसमों का मित्र’ रहा है।
दरअसल सोवियत संघ ने हमेशा राष्ट्र हित व विचार धारा हित मंे कदम उठाए।
अधिकतर देश अपने राष्ट्र के हित में ही ऐसे फैसले करते हैं।
यह स्वाभाविक भी है।
पर,दूसरी ओर, इसके विपरीत आजादी के तत्काल बाद की भारत सरकार ने कई बार राष्ट्रहित से परे जाकर भावनाओं से काम लिया।
उसका खामियाजा भी इस देश को भुगतना पड़ा है।
आज नरेंद्र मोदी की सरकार यदि रूस-उक्रेन युद्ध में निष्पक्ष
भूमिका निभा रही है तो वह राष्ट्रहित में ही है।
यह तथ्य कम ही लोग जानते हैं कि सन 1962 में चीन ने सोवियत संघ की पूर्व सहमति के बाद ही भारत पर आक्रमण किया था।
तब ऊपर-ऊपर तो सोवियत संघ और भारत की मास्को पंथी शक्तियों ने यह प्रचारित किया कि सोवियत संघ भाई चीन और मित्र भारत के बीच के झगड़े नहीं पड़ना चाहता था।
किंतु सन 1987 में मशहूर वकील व लेखक ए.जी.नूरानी ने अपने शोध पूर्ण लेख में देश को यह बताया कि ‘‘जब चीनी नेताओं ने निकिता खु्रश्चेव को बताया कि सीमा पर भारत का रुख आक्रामक है तो खु्रश्चेव ने भारत के खिलाफ चीनी कार्रवाई को मंजूरी दे दी।’’
चीनी दस्तावेजों व सोवियत प्रकाशन को उधृत करते हुए नूरानी ने इलेस्ट्रेटेड विकली आॅफ इंडिया(8 मार्च, 1987)में लंबा लेख लिखा था।
याद रहे कि चीन को हमले की मंजूरी देने से पहले सोवियत संघ ने ‘भाई भारत’ से पूछा तक नहीं कि सीमा पर क्या हालात हैं।
सच पूछें तो भारतीय सेना की तैयारी की हालत दयनीय थी।
भारतीय सेना के पास ने तो गर्म कपड़े थे और न जूते।
जब चीन ने हमला किया तो उस औचक संकट में पड़ी भारतीय सेना ने कैसे मुकाबला किया ?
युद्ध संवाददाता मनमोहन शर्मा के शब्दों में पढ़िए,
‘‘मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।
नेहरू जी ने कभी सोचा ही नहीं था कि
चीन हम पर हमला करेगा।
एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।
अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।
उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।
उन्हें बोमडीला में एयर ड्राॅप कर दिया गया
जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।
वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।
युद्ध चल रहा था,मगर हमारा जनरल कौल मैदान छोड़कर दिल्ली आ गया था।
ये नेहरू जी के रिश्तेदार थे।
इसलिए उन्हें बख्श दिया गया।
हेन्डरसन जांच रपट आज तक संसद में पेश करने की किसी सरकार में हिम्मत नहीं हुई।’’
ए.जी.नूरानी के अनुसार,
चीनी हमले के करीब साल भर बाद ‘‘ 2 नवंबर, 1963 के चीनी अखबार ‘द पीपुल्स डेली’ ने
लिखा था कि ‘‘ 8 अक्तूबर, 1962 को चीनी नेता ने सोवियत राजदूत से कहा कि भारत हम पर भारी हमला करने वाला है।
यदि ऐसा हुआ तो चीन खुद अपनी रक्षा करेगा।’’
13 अक्तूबर, 1962 के खु्रश्चेव ने चीनी राजदूत से कहा कि ‘‘हमें भी ऐसी जानकारी मिली है।
यदि हम चीन की जगह होते तो हम भी वैसा ही कदम उठाते जैसा कदम उठाने को चीन सोच रहा है।’’
उसके बाद ही 20 अक्तूबर, 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया।
सोवियत संघ ने किस तरह चीन का समर्थन किया,उसका सबूत सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘प्रावदा’ में मिलता है।
25 अक्तूबर, 1962 के प्रावदा ने अपने संपादकीय में लिखा कि
‘‘चीन मैकमोहन रेखा को नहीं मानता।हम इस मामले में चीन का समर्थन करते हैं।’’
5 नवंबर, 1962 को उसी अखबार ने लिखा कि भारत को चाहिए कि वह चीन की शर्त को मान ले।
याद रहे कि लोक सभा में डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि ‘‘चीन तिब्बत पर अपना आधिपत्य जताने के लिए ब्रिटिश सरकार की गवाही मानता है।पर,ब्रिटिशर्स ने ही तो भारत और चीन के बीच मैक मोहन रेखा खींची थी।उस रेखा को चीन क्यों नहीं मानता ?’’
14 नवंबर, 1962 को मनोनीत रक्षा मंत्री वाई.बी.चव्हाण ने पूना में कहा कि ‘‘हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि चीन के खिलाफ सोवियत संघ हमारा साथ देगा।’’
याद रहे कि चीन से पराजय की पृष्ठभूमि में वी.के.कृष्ण मेनन ने एक नवंबर, 1962 को रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
एक नवंबर से 21 नवंबर तक प्रधान मंत्री के पास ही रक्षा मंत्रालय रहा।
21 नवंबर को वाई.बी.चव्हाण रक्षा मंत्री बने।
जानकार सूत्रों के अनुसार ‘पीपुल्स डेली’ के अलावा भी इस बात के सबूत अन्य प्रकाशन में मिलते हैं कि खु्रश्चेव ने भारत पर हमले की हरी झंडी चीन को दिखा दी थी।
खु्रश्चेव ने इस तथ्य के बावजूद चीन को हरी झंडी दिखा दी कि 25 अगस्त, 1959 को चीनी सेना ने लोंगजू की भारतीय चैकी पर हमला किया था।तब सोवियत ने चीनी हमले पर दुख प्रकट किया था।
सन 1956 में सोवियत संघ ने हंगरी में सोवियत
विरोधी विद्रोह को दबा दिया था।
उसकी दुनिया में आलोचना हुई।
तब सोवियत नेतृत्व चाहता था कि इस मुद्दे पर भारत उसका समर्थन करे।
जब भारत ने समर्थन नहीं किया तो सोवियत संघ ने कश्मीर के मामले में सुरक्षा परिषद में भारत का साथ नहीं दिया।
साभार : वेबसाइट टी वी 9 हिन्दी न्यूज पर आज प्रकाशित
